Book Title: Jinvani Sangraha
Author(s): Satish Jain, Kasturchand Chavda
Publisher: Jinvani Pracharak Karyalaya

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Page 206
________________ · जिनवाणी संग्रह | ३८८ जिन धाम ||२३|| तीन लोक हित करत अनूप । मंगल मय जगमैं विद्रूप ॥ प ॥ चिंतामणी स्वर वृक्ष समान । रिद्ध सिद्ध मङ्गल सुख दान ||२४|| पार्श्व और काम सुर छैन । नाना विध आनन्दको देन । व्याध विकार जाहि सब भाज। मन चिंतें पूरे सब काज ||२५| भवदधि रोग विनाशक होई। जो पद जगमें और न कोई ॥ निमल परम धाम उत्कृष्ट । बन्दत पाप भर्ज अरु दुष्ट ||२६|| जो नर ध्यावत पुन्य कमाय । जश गावत ऐ कर्म नशाय ॥ करें अनादि कर्मके पाप । भज सकल छिनमें सन्ताप ||२७|| सुर नर इन्द्र फणिन्द्र सबै । और खगेन्द्र महेन्द्र जु नमे ॥ नित सुरसुरी ज करे उच्चार | नाचत गावत विविध प्रकार ||२८|| बहु विध भक्त करे मन लाय | विविध प्रकार वाजि त्र बजाय ||२८|| द्रुम द्रुम द्रुम 'बाज' मृदङ्ग | घन घन घंट वजे मुह चङ्ग । झन झन झनिया करे उच्चार । सरसारौंगी धुन उच्चार ॥ ३० ॥ मुरली बोन वजै घन मिष्ट । पट हांतुरी स्वरान्वत पुष्ट || नित सुरगण धित गावत 1 सार । सुरगण नाचत बहुत प्रकार ||३१|| झननन झननन नूपुर तान । तननन तननन टोरत तान । ता थेई थेई थेई थेई थेई चाल । सुर नाचत निज नावत भाल ||३२|| गावत नावत नाना रङ्ग । लेत जहां शुभ आनंद सङ्ग ॥ नितप्रति सुर जहां वन्दे जाय ॥ नाना विध मङ्गल को गाय ॥ ३३॥ आनन्द धुन सुन मोर ज सोथ । प्रापत व्रतकी अति हो होय || तातें हमकू' हैं सुख सोई । गिरधर बंदो कर धर दोई ||३४|| मारुत मन्द सुगन्ध खलेय । गंधो वक तहां बर सोय ॥ जियकी जात विरोध न होई । गिरवर बंदे कर धर दोई ||३५|| ज्ञान चरित तपसा धन होई। निज अनुभौको

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