Book Title: Jinvani Sangraha
Author(s): Satish Jain, Kasturchand Chavda
Publisher: Jinvani Pracharak Karyalaya

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Page 215
________________ जिनवाणी सर पूरण करो। उद्यापन विधिसे आवसे ॥२१॥ भन्तकाल वे कन्या सार। सुमिरण कोपा नवकार गबारों मरण समाधि सकियो। दश स्वर्ग जन्म तिन लियो ॥२२॥ पोड्स सागर मायु प्रमाण । धर्म ध्यान सेवें तहां जान ॥ सिद्ध क्षेत्रमें कर विहार । क्षायक सम्यक उदय अपार ॥२३॥ सुभग अवन्ती देश विशाल । उज्जेनी नगरो गुणमाल स्थूलमद्र नामा नरपतो। रानी चार लो अति गुणवती ॥ २४ ॥ देव गर्ममें आये चार । ता रानीके उदर मकार प्रथम सुपुत्र देवप्रभु भयो। दूजो सुत गुणचन्द्र भाषियो॥ २५ ॥ परप्रभा तीनों बलवीर। पर स्वारथो चोथो धीर ।। जन्म महोत्सव तिनको करो। अशुभ दोष प्रह दोनो हरो॥२६॥ निकल प्रभा राजाकी सुता ते वारो परणी गुण युता ॥ प्रथम सुता सो ब्राह्मी नाम । दुतिय कुमारी सो गुणधाम ।। २७ ।। रूपवती तोजी सुकुमाल । मृगाक्ष चौथी सो गुणमाल | करो व्याह घर को आइयो । सकल लोक घर आनन्द कियो॥ २८॥ स्थूलभद्र राजा इक दिना । मोग विरक्त भयो भव तना ।। राजपुत्रको दीनो सार। बनमें जाय योग शुभ धार ॥ २८ ॥ तपकर उपजो केवल ज्ञान ।' बसु विधि हनि पायो निर्वाण ॥ अब पुत्र राजको करें। पुण्यका फल पावे ते धरं ॥३०॥ चारों बांधव चतुर सुजान । महि निशि धर्म तनो फल मान । एक समय विरक सो भये । आतम काय चिन्तयत ठये ॥३१॥ चारों बान्धव दिक्षा ल । बनमें जाय तपस्या ठई । निज मनमें विपाराधि । शुक्ल ध्यानको पायो साधि ॥ १२॥ सर्व विमल केवल अग्नो। सुख प्रान्त तबही सो ठनो । करो महोत्सव देव कुमार। अब अब शब्द मयो तिहि

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