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दशलक्षण धर्म पूजा।
३३५ जो तप तपै व अभिलाषा। चूरै करमशिखर गुरु भाषा ॥ साधुसमाधि सदा मन लावै । तिह जगभोग भोगि शिव जावे ॥५॥ निशदिन बयावृत्य करैया । सो निह भवनीर तिरैया ॥ जो अरिहन्तभगति मन आनै । सो जन विषय कषाय न जाने ॥६॥ जो आचारजभगति कर है। सो निर्मल आचार धरै हैं । बहुश्रु तबतभगति जो करई। सो नर सम्पूरण श्रुत धरई ॥८॥ प्रवचनभगति करे जो ज्ञाता। लहैं ज्ञान परमानंद दाता ॥ पट्आवश्य काल जो साधै । सो ही रतनत्रय आराधै ८ ॥ धरमप्रभाव करें जे ज्ञानी। तिन शिवमारग रीति पिछानो॥ बात्सलअङ्ग सदा जो ध्यावे । सो तीर्थंकर पदवी पावै ॥ ८ ॥ दोहा-एही सोलह भावना, सहित धरै व्रत जोय ।
देवइन्द्रनरवन्धपद, 'द्यानत' शिवपद होय ॥ १० ॥ ओं ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोड़शकारणेभ्य: पूर्णाऱ्या निर्बपामि ॥ (६४) अथ दशलक्षणधर्मपूजा।
अडिल्ल-उत्तम क्षिमा मारदव आरजव भाव हैं । सत्य शौच सञ्जम तप त्याग उपाव हैं ॥ आकिञ्चन ब्रह्मवरज धरम दश सार हैं । वहुँ गतिदुखतें काढ़ि मुकत करतार हैं ॥ १ ॥ ओं ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्रावतर अवतर! संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव । बषट् ।
सोरठा-हेमाचलकी धार, मुनिचित सम शीतल सुरभ । भवआताप निवार, दश लच्छन पूजों सदा ॥ ओं ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधमांय जल' निर्वपामि ॥१॥