Book Title: Jinvani Sangraha
Author(s): Satish Jain, Kasturchand Chavda
Publisher: Jinvani Pracharak Karyalaya
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दशलक्षण पूजा।
निकारै तन विदार, बैर जो न तहां धरै ।। जे करम पूरब किये खोटे, सहै क्यों नाहं जीयरा। अति क्रोध अगनि बुझाय प्रानी, साम्य जल ले सोयरा॥
ओं ह्रीं उत्तमक्षमाधर्माङ्गाय अयं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ मान महाविषरूप करहि नीचगति जगत में । कोमल सुधा अनूप, सुख पावै प्रानी सदा ॥२॥ उत्तम मादेवगुन मन माना। मान करनको कौन ठिकाना || वस्यो निगोदमाहिं तें आया। दमरी रूकन भाग विकाया ।। रूकन विकाया भागवशते, देव इकान्द्री भया। उत्तम मुआ वण्डाल हुआ, भूप कीड़ोंमें गया। जीतव्य जोबन धनगुमान, चहा कर जलबुदबुदा । करि विनय बहुगुन बड़े जनकी, शानका पावै उदा।।
ओं ह्रीं उत्तममादेवधर्माङ्गाय अयं निवपामीति स्वाहा ॥२॥ कपट न कीजै कोय, चोरनके पुर ना बसे । सरल सुभावो होय ताके घर बहु सम्पदा ॥३॥ उत्तमआर्जव रीति बखानी । रंचक दगा बहुत दुखदानी ॥ मनमें हो सो बचन उवरिये। बचन होय सो तनसौं करिये ॥ करिये सरल तिहुँ जोग अपने,देख निमल आरसी मुख कर जैसा लम्बे तैसा, कपट प्रीति अँगारसी ॥ नहि लहै लछमी अधिक छलकरि, करमबंध विसेखता। भय त्यागि दूध बिलाव पीवे, आपदा नहिं देखता। ___ओं ही उत्तमानवधर्माङ्गाय अभ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ धरि हिरद सन्तोष, करहु तपस्या देहसों। शौच सदा निरदोष, धरम बड़ो संसारमें | उत्तम शौच सर्व जग जाना । लोभ पाएको पाप जाना | मासाफांस महा दुखदानी । सुख पावे सन्तोषी

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