Book Title: Jinvani Sangraha
Author(s): Satish Jain, Kasturchand Chavda
Publisher: Jinvani Pracharak Karyalaya

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Page 189
________________ ३५६ जिनवाणी संग्रह | उन्हीं अष्टादशदोषरहितषट् चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीजिनेभ्योचन्दनं औगुन दुखदाता, कह्यो न जाता, मोहि असाता, बहुत करे । तंदुल गुनमंडित, अमल अखंडित, पूजत पंडित प्रीति घरे ॥ प्र० || ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट् चत्वारिंशद्गुणसहित अक्षतान । सुरनर पशुको दल, काम महाबल, बात कहत छल, मोहि लिया । ताकेशरलाऊ फूल चढ़ाऊ, भगति बढ़ाऊ, खोल हिया || प्रभु ० ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितपट् चत्वारिशद्गुणसहित पुष्पं । सब दोषनमाहीं, जासम नाहीं, भूख सदा हो, मो लागे । सद् घेवर बावर, लाडू बहु घर, थार कनक भर तुम आगे। प्र० ॐ ह्रीं अष्टादशदोपरहितष्टचत्वारिशद्गुणसहित नैवेद्य ० ॥ अज्ञान महातम, छाय रह्यो मम, ज्ञान ढक्यो हम दुख पाव I तम मेटनहारा, तेज अपारा, दीप सँभारा, जस गावें ॥ प्रभुः ओं ह्रीं अष्टादशदोषरहितपट् चत्वारिंशद्गुणसहित दीपं ॥ इह कर्म महावन, भूल रह्यो जन, शिवमारग नहिं पावत हैं । कृष्णागरधूपं, अमल अनूपं, सिद्धस्वरूपं, ध्यावत हैं | प्रभु अंतरजामी, त्रिभुवननामी, सबके स्वामी, दोष हरो । यह अरज सुनीजै, ढील न कीजें, न्याय करीजै दया धरो ॥७॥ ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट् चत्वारिंशद्गुणसहित धूपं० ॥ सबतैं जोरावर, अंतराय अरि, सुफल विघ्न करि डारत हैं। फल पुंज विविध भर, नयनमनोहर, श्रीजिनवरपद धारत हैं ॥ प्रभु०॥ ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुणसहित फल ० ॥ आठौं दुखदानी, आठनिशानी, तुम ढिग आनी, निवारन हो 1 दीनन निस्तारन, अघमउधारन, 'द्यानत' तारन, कारन हो । प्रभु०

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