Book Title: Jinvani Sangraha
Author(s): Satish Jain, Kasturchand Chavda
Publisher: Jinvani Pracharak Karyalaya
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जिनवाणी संग्रह। इहभव विभववाह दुखदानी । परभवभोग सहै मत प्रानी ॥ प्रानी गिलान न करि अशुचि लखि, धरमगुरुप्रभु परखिये। परदोष दकिये धरम डिगतेको सुथिर कर हरखिये। चहुसंघको वात्सल्य कीजे, धरमकी परभावना ।
गुन आठसों गुन आठ लहिके, इहां फेर न आवना ॥२॥
ओं ह्रीं अष्टाङ्गसहितपञ्चविंशतिदोषरहिताय सम्यग्दर्शनाय पूर्णाध्यं निर्बपामीति स्वाहा ॥२॥
(६८) ज्ञानपूजा। दोहा-पंचभैद जाके प्रगट, शेयप्रकाशन भान ।
मोह तपन हर चन्द्रमा, सोई सग्यकशान ॥१॥
ओं ही अष्टविधसम्यग्ज्ञान ! अत्र अवतर अवतर । सगौषट् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव । गषट सोरठा-नीर सुगन्ध अपार, त्रिषा हरे मल छय करै ।
सम्यकज्ञान विचार; आठ भेद पूजौं सदा ॥१॥
ओं हीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ जलकेसर धनसार, ताप हरे शीतल करै । सम्यकज्ञा० ॥२॥
ओं ही अष्टनिधासम्यग्ज्ञानाय चंदनं निपामीति स्वाहा ॥२॥ अछत अनुप निहार, दारिद नाशे सुख भरै । सम्यग्ज्ञा० ॥३॥
ओं ही अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ पहुपसुवास उदार, खेद हरे मन शुचि करे । सम्यकशा० ॥४॥
ओं ही अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय पुष्पं निर्व पामीति स्वाहा ॥४॥ जेवज विविध प्रकार, छुधा हरै थिरता करे । सम्यकशा० ॥५॥
ओं ही अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय नैवेद्य निर्व पामीति खाहा ॥५॥

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