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जिनवाणी संग्रह।
लागे तहां फूल ॥ सो कबहू बिन भक्ति कुठार । कटे नहीं दुख फल दातार ॥ १३ ॥ फल्प सरोवर चित्रा बेलि । काम पोरवा नव निधि मेल॥ चिन्तामणि पारस पाषाण । पुण्य पदारथ और महान ॥१४ ।। ये सब एक जन्म संयोग । किश्चित सुख दातार नियोग। त्रिभुवननाथ तुम्हारी सेव । जन्म २ सुखदायक देव ॥ १५ ॥ तुम जग बांधव तुम जग तात । अशरण शरण विरद विख्यात ॥ तुम सब जीवन रक्षापाल । तुम दाना तुम परम दयाल ॥ १६ ॥ तुम पुनीत नुम पुरुष प्रमान । तुम सम दशों तुम सब जान । जयमुनि यज्ञ पुरुष परमेश ॥ तुम ब्रह्मा तुम विष्णु महेश ॥ १७ ॥ तुम जग भर्त्ता तुम जग जान । स्वामि स्वयम्भू तुम अमलान ॥ तुम बिन तीन काल तिहुं खोय । नाहीं शरण जीवको होय ॥ १८ ॥ इससे अब करुणानिधि नाथ । तुम सन्मुख हम जोड़े हाथ ॥ जबलों निकट होय निर्वाण । जग निवास छूट दुख दान |॥१८॥ तब लों तम चरणाम्बुज बास । हम उर होय यही अरदास ।। और न कछु बांछा भगवान । हो दयालु दीजे वरदान ॥ ३० ॥ दोहा-इस विधि इन्द्रादिक अमर, कर बहु भक्ति बिधान ।
निज कोठे बेठे सकल, प्रभु सन्मुख सुख मान ॥२१॥ जीति कर्म रिपु ये भये, केवल लब्धि निवास । सो श्रीपार्श्व प्रभू सदा, करो विघ्न घन नाश ॥
( १२) अरिहन्त परमेष्ठी मंगल । वन्दों श्रीअरिहन्त सिद्ध आचार्यजी। उपाध्याय नमि साधु भवधर आर्यजो । पंच परमपद श्रेष्ठ जगति में ये कहे। इन ही के सुप्रसाद भव्यजन सुख लहे ॥ लहे लेत ले यगे सुख मुक्ति