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जिनवाणी संग्रह।
१ क्षुधापरीषह-अनशन ऊनोदर तप पोषत हैं पक्ष मास दिन बीत गये हैं। जो नहीं बने योग्य भिक्षा विधि सूख अंग सब शिथिल भये हैं। तब तहां दुस्सह भूखकी वेदन सहित साधु नहीं नेक नये हैं। तिनके चरण कमल प्रति प्रति दिन हाथ जोड़ हम सोस नये हैं।
२ तृषा परीषह-पराधीन मुनिवरकी भिक्षा पर घर लेय कहें कछु नाहीं । प्रकृति विरुद्ध पारणा भुजत बढ़त प्यासको त्रास तहां ही॥ ग्रीषमकाल पित्त अति कोपे लोचन दोय फिरे' जब जाहीं। नीर न चहैं तीस से मुनिवर जयवन्तों वरतो जग माहीं॥
३ शीत परीषह-शीतकाल सब हो जन कम्पै खड़े जहां वन वृक्ष दहे हैं । झंझा वायु वहे वर्षा ऋतु वर्षत बादल झूम रहे हैं । तहां धीर तटिनी तट चौपट ताल पालपर कमें दहे हैं। सहैं सम्हाल शीत की बाधा ते मुनि तारण तरण कहे हैं।
४ उष्ण परीषह-भूख प्यास पीड़ उर अन्तर प्रज्वले आंत देह सब दागे । अग्नि स्वरूप धूप ग्रीषमको ताती वायु झालसी लागे ॥ तपै पहाड़ ताप तन उपजे कोप पित्त दाहज्वर जागे । इत्यादिक गर्मीकी बाधा सहैं साधु धैर्य नहि त्यागे ॥
५-दंशमशक परीषह-दंश मशक माखी तनु काटें पीड़े बन पक्षी बहुतेरे । डसें व्याल विषहारे बिच्छू लगे खजूरे आन घनेरे ॥ सिंघ स्याल शुण्डाल सतावे रीछ रोज दुःख देय घनेरे। ऐसे कष्ट सह समभावन ते मुनिराज हरो अघ मेरे।
६ नग्न परीषह-अन्तर विषय वासना व बाहिर लोक लाज भय भारी । तातै परम दिगम्बर मुद्रा धर नहि सके दीन