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_*जिनवाणी संग्रह *
भव सुरस भरी ॥१॥ शांत्याकृति निरखत ही परकी आरति सर्व गरी । चिर मिथ्या तम नाश करनको मानो अमृत झरी ॥२॥ वीतराग ताका सुहेतु सुनि मोह भुजग विसरी । पट भूषण विनवै सुन्दरता नाहीं रंक हरी ॥३॥ जाकी युति शत कोट चन्द्रने अद्धत जग विस्तरी । तारक रूप निहारि देव छवि मालिक नमन करी ॥४॥
८० केइया कुटलाई
मत करो प्रीति वेश्या विष बुझी कटारी। है यही सकल रो. गनकी खान हत्यारी ॥ टेक ॥ औषधि अनेक हैं सर्प डसेकी भाई। पर इसके काटे की नहिं कोई दवाई ॥ गर लगे वान तो जीवित हू रहि जाई । पर इसके नैनके वानसे होय सफाई ॥ है रोम रोम विष भरी करो ना यारी। है यही सकल रोगनकी खान हत्यारी ॥ १ ॥ यह तन मन धन हर लेय मधुर बोलीमें। बहुतोंका कर शिकार उमर भोलोमें ॥ कर दिये हजारों लोटपोट होलीमें। लाखोंका दिल कर लिया कैद चोलोमें ॥ गई इसी कर्ममें लाखों ही जमीदारी । है यही सकल रोगनकी खान हत्यारी ॥२॥ हो गये हजारोंके बल वीर्य छारा । लाखोंका इसने वंश नाश कर डारा॥ गठिया प्रमेह आतिशने देश बिगारा। भारत गारत हो गया इसीका मारा ॥ कर दिये हजारों इसने चोर और ज्वारी। है यही सकल दुर्गुणको खानि हत्यारी ॥३॥ इसही ठगनीने मद्य मांस सिखलाया। सब धर्म कर्मको इसने धूर मिलाया । और दया क्षमा लज्जाको मार भगाया । ईश्वर भकीका मूल नाश करवाया। हों इसके उपासक रोरवके अधिकारी । है यही० ॥४॥ वह नव.