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काशीनिवासी कविवर वृन्दावनविरचित
८८ अरहतपासाकेवली । दोहा-श्रीमत वीरजिनेशपद, बंदों शीस नवाय । गुरु गौतमके बरन नमि, नमों शारदा मायं ॥ १॥ श्रेणिक नपके पुण्यतें, भाषी गणधरदेव। जगतहेत अरहंत यह. नाम 'केवली' सेव ॥२॥ चंदनके पासाविर्ष, चारों ओर सुजान । एक एक अक्षर लिखौ, श्री 'अरहंत' विधान ॥ ३॥ तीन वार डारो तबै, करि वर मंत्र उचार । जो अक्षर पांसा कहै, ताको करौ विचार ॥ ४ ॥ नीन मंत्र हैं तासुके, सात सात हो बार । थिर है पांसा ढारियो, करिकै शुद्ध उद्धार ॥ ५ ।। जानि शुभाशुभ तासुतं, फल निज उदयनियोग। मन प्रसन्न ह्र सुमरियो, प्रभुपद सेवहु जोग ॥ ६ ॥
प्रथममंत्र-ओं ह्रीं श्रीं बाहुबलि लंबवाहु ओं क्षां क्षीं संक्षे क्षे क्षों क्षः ऊर्द्ध भुजा कुरु कुरु शुभाशुभं कथय कथय भूतभविष्यतिवर्तमानं दर्शय दर्शय सत्यं ब्रूहि सत्यं ब्रूहि स्वाहा ।
(प्रथम मंत्र सात वार जपना) दूसरा मंत्र-ओं हः ओं सः ओं क्षः सत्यं वद सत्यं वद स्वाहा ।
(सात वार जपना * ) तीसरा मंत्र ओं ह्रीं श्रीं विश्वमालिनि विश्वप्रकाशिनि अमोघवादिनि सत्यं ब्रूहि सत्यं ब्रूहि राह्यहि राह्यहि विश्वमालिनि स्वाहा।
* मन एकत्र करि विनयसहित अपना अभिप्राय बिचारकरि श्री मह त भगवान के नामाक्षरका पांसा तोन बेर ढालना। जो जो वरन पड़े तिसो वरनका भेद पाक फलका विश्चय करना। जिम मागमें यह बड़ा निमित्त है। इसे हमने लिखा कि अपना वा पराया उपकार होय । ( वृन्दावन )