________________
** धर्म पचीसी #
१५७
I
सदीव || विविध प्रकार गर्दै परयाय । श्रोजिनधर्म न नेक सुहाय ||२|| धर्म बिना बहुगति में परे । चौरासीलख फिर फिर घरे ॥ दुख दावानल माहिं तपन्त । कर्म करे फल भोग लहन्त || || अति दुर्लभ मानुष पर्याय । उत्तम कुल धन रोग न काय || इस अवसर में धर्म न करे । फिर यह अवसर कबहुं न सरे ॥ ४ ॥ नरकी देह पाय रे जीव । धर्म बिना पशु जान सदीव ॥ अर्थ काममें धर्म प्रधान । ता बिन अर्थ न काम न मान ॥ ५ ॥ प्रथम धर्म जो करे पुनीत । शुभसङ्गत आवे कर प्रीति ॥ विघ्न हरे सब कारज करे। धन सों चारों ने भरे ॥ ६ ॥ जन्म जरा मृत्यु बश होय । तिहूकाळ डोले जग सोय ॥ श्रीजिन धर्म रसायन पान । कबहुं न रुचे उपजे अज्ञान ||७|| ज्यों कोई मूरख नर होय । हलाहल गहे अमृत खोय || त्यों शठ धर्म पदारथ त्याग । विषयन सो ठाने अनुराग ॥ ८ ॥ मिथ्याग्रह गहिया जो जीव । छांड़ धर्म विषयन चित दीव || ज्यों पशु कल्पवृक्षको तोड़ | वृक्ष धतूरे की भू जोड़ ॥ ६ ॥ नर देही जानों परधान | विसर विषय कर धर्म सुजान ॥ त्रिभुवन इन्द्रतने सुख भोग | पूजनीक हो इन्द्रन जोग ॥ १० ॥ चन्द्र विना निश गज बिन दन्त । जैसे तरुण नारि बिन कन्त ॥ धर्म बिना त्यों मानुष देह । तातें करिये धर्म सुनेह ॥ ५१ ॥ हथ गय रथ पावक बहु लोग 1 सुभट बहुत दल चार मनोग । ध्वजा आदि राजा बिन जान। धर्म बिना त्यों नरभव मान || १२ || जैसे गन्ध बिना है फूल 1 नीर बिहीन सरोवर धूल ॥ ज्यों बिन धन शोभित नहीं भोन । धर्म बिना त्यों नर चिन्तोन ॥१३॥ अरचे सदा देव पद करुणावन्त । खरचे दाम धरम सों प्रेम
अरहन्त । चर्चे गुरु
|
रुने विषय सुफल