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* समायिक पाठ भाषा *
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नाहि बन्दो मनवचतन ॥ २३ ॥ जाके बन्दनथकी दोष दुख दूरहि जावै । जाके बन्दनथकी मुक्ति तिय सम्मुख आवै ॥ जाके बन्दनथकी बंद्य होवें सुरगनके। ऐसे वीर जिनेश बन्दिहं क्रमयुग तिनके ॥ २४ ॥ सामायिक पटकर्ममाहि बंदन यह पञ्चम वन्दे वीरजिनेन्द्र इन्द्रशतबन्ध वन्द्य मम ॥ जन्म मरण भय हरो करो अघ शांतशांत मय । मैं अघ कोष सुपोष दोषको दोष विनाशय ||२५||
छट्ठा कायोत्सर्गकर्म 1
कायोत्सर्गविधान करू' अन्तिम सुखदाई | कायत्यजन मय होय काय सबकों दुखदाई ॥ पूरव दक्षिण नमू दिशा पश्चिम उत्तर मै । जिनगृह वंदन करू हरू भवपापतिमिर मैं ||२६|| शिरोनती में करु' नमू ं मस्तक कर धरिलें । आवर्त्तादिक क्रिया करू मनबच मद हरिके || तीन लोक जिन भवनमांहिं जिन हैं जु अकृत्रिम । कृत्रिम हैं अर्द्धद्वीपमाहीं वंदौं जिम ||२७|| आठ कोडिपरि छप्पन लाख जु महस सत्याणू' । चारि शतकपरि असी एक जिनमंदिर जाणूं ॥ व्यंतर ज्योतिषमांहि संख्यरहिते जिनमन्दिर । जिनगृह वन्दन करू हरहु मम पाप सघकर ॥ २८ ॥ सामायिक सम नाहि और को वैर मिटायक । सामायिक सम नाहि और कोड मैत्रीदायक ॥ श्रावक अणुत्रन आदि अंत सप्तम गुणथानक । यह आवश्यक किये होय निश्चय दुखहानक ॥ २६ ॥ जे भवि आतम काज करण उद्यमके धारी । ते सब काज विहाय करो सामायिक सारी ॥ राग दोष मद मोह क्रोध लोभादिक जे सब | बुध महाचन्द्र वि-लाय जाय तानें की ज्यो अब ||३०|| इति ॥