Book Title: Jinendra Archana
Author(s): Akhil Bansal
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 17
________________ पतित-पावन मानता है; उसीप्रकार यह भी कर्तृत्व बुद्धि से ईश्वर को मानता है। ऐसा नहीं जानता कि फल तो अपने परिणामों का लगता है, अरहन्त तो उनको निमित्तमात्र है; इसलिए उपचार द्वारा वे विशेषण सम्भव होते हैं। ___ अपने परिणाम शुद्ध हुए बिना अरहन्त ही स्वर्ग-मोक्षादि के दाता नहीं हैं। तथा अरहन्तादिक के नामादिक से श्वानादिक ने स्वर्ग प्राप्त किया, वहाँ नामादिक का ही अतिशय मानते हैं; परन्तु बिना परिणाम के नाम लेनेवाले को भी स्वर्ग प्राप्ति नहीं होती, तब सुननेवाले को कैसे होगी? श्वानादिक को नाम सुनने के निमित्त से कोई मन्दकषाय रूप भाव हुए हैं, उनका फल स्वर्ग हुआ; उपचार से नाम ही की मुख्यता की है। तथा अरहन्तादिक के नाम-पूजनादि से अनिष्ट सामग्री का नाश तथा इष्ट सामग्री की प्राप्ति मानकर रोगादि मिटाने के अर्थ व धनादिक की प्राप्ति के अर्थ नाम लेता है व पूजनादि करता है। सो इष्ट-अनिष्ट का कारण तो पूर्व कर्म का उदय है, अरहन्त तो कर्ता हैं नहीं। अरहन्तादिक की भक्ति रूप शुभोपयोग परिणामों से पूर्व पाप के संक्रमणादि हो जाते हैं, इसलिए उपचार से अनिष्ट के नाश का व इष्ट की प्राप्ति का कारण अरहन्तादिक की भक्ति कही जाती है; परन्तु जो जीव प्रथम से ही सांसारिक प्रयोजन सहित भक्ति करता है, उसके तो पाप ही का अभिप्राय हुआ कांक्षा, विचिकित्सारूप भाव हुए; उनसे पूर्वपाप के संक्रमणादि कैसे होंगे? इसलिए उसका कार्य सिद्ध नहीं हुआ। तथा कितने ही जीव भक्ति को मुक्ति का कारण जानकर वहाँ अति अनुरागी होकर प्रवर्तते हैं। वह तो अन्यमती जैसे भक्ति से मुक्ति मानते हैं, वैसा ही इनके भी श्रद्धान हुआ; परन्तु भक्ति तो रागरूप है और राग से बन्ध है, इसलिए मोक्ष का कारण नहीं है। जब राग का उदय आता है, तब भक्ति न करें तो पापानुराग हो, इसलिए अशुभ राग छोड़ने के लिए ज्ञानी भक्ति में प्रवर्तते हैं और मोक्षमार्ग का बाह्य निमित्त मात्र भी जानते हैं; परन्तु यहाँ ही उपादेयपना मानकर संतुष्ट नहीं होते, शुद्धोपयोग के उद्यमी रहते हैं।'' पुजारी को पूज्य के स्वरूप का भी सच्चा परिज्ञान होना चाहिए। जिसकी पूजा की जा रही है, उसके स्वरूप की सच्ची जानकारी हुए बिना भी पूजा और पुजारियों की भावना में अनेक विकृतियाँ पनपने लगती हैं। प्रसन्नता की बात है कि आधुनिक युग में लिखी जानेवाली पूजनों में इस बात का भी ध्यान रखा जा रहा है। पूज्यों में मुख्यतः देव-शास्त्र-गुरु ही आते हैं। आधुनिक युग में लिखी गई देव-शास्त्र-गुरु पूजनों की जयमालाओं में उनकी भक्ति करते हुए उनके स्वरूप पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। गुरु के स्वरूप पर प्रकाश डालने वाली निम्नांकित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं - हे गुरुवर! शाश्वत सुख-दर्शक, यह नग्न स्वरूप तुम्हारा है। जग की नश्वरता का सच्चा दिग्दर्शन करने वाला है।। जब जग विषयों में रच-पच कर, गाफिल निद्रा में सोता हो। अथवा वह शिव के निष्कंटक, पथ में विषकंटक बोता हो।। हो अर्द्ध निशा का सन्नाटा, वन में वनचारी चरते हों। तब शान्त निराकुल मानस तुम, तत्त्वों का चिन्तन करते हो।। करते तप शैल नदी तट पर, तरु तल वर्षा की झड़ियों में। समता रस पान किया करते, सुख-दुःख दोनों की घड़ियों में।।' दिन-रात आत्मा का चिन्तन, मृदु सम्भाषण में वही कथन । निर्वस्त्र दिगम्बर काया से भी, प्रकट हो रहा अन्तर्मन ।। निर्ग्रन्थ दिगम्बर सद्ज्ञानी, स्वातम में सदा विचरते जो। ज्ञानी ध्यानी समरस सानी, द्वादश विधि तप नित करते जो।।' सच्चे देव के स्वरूप को समझने में हमसे क्या भूल हो जाती है और उसका १. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २२२ १. श्री जुगलकिशोर 'युगल' : देव-शास्त्र-गुरु पूजन, जयमाला। २. वही। जिनेन्द्र अर्चना 10000 जिनेन्द्र अर्चना 17

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