Book Title: Jinendra Archana
Author(s): Akhil Bansal
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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धूप घ्रान-सुखकार, रोग विघन जड़ता हरै ।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अष्टकर्मविनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्रीफल आदि विथार, निहचै सुर शिवफल करै।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय मोक्षफल प्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गन्धाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु ।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अनर्घ्यपद प्राप्ताय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
(दोहा)
सम्यक्चारित्र पूजन
(दोहा) विषय-रोग औषध महा, दव-कषाय-जल-धार।
तीर्थंकर जाको धरै, सम्यक्चारित सार ।। ॐ ह्रीं श्री त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्र ! अत्र अवतर अवतर, संवौषट्, इति आह्वाननम् । ॐ ह्रीं श्री त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ, ठः ठः, इति स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्र ! अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट्, इति सन्निधिकरणम् ।
(सोरठा) नीर सुगन्ध अपार, तृषा हरै मल छय करै।
सम्यक्चारित सार, तेरह विध पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल केसर घनसार, ताप हरै शीतल करै।
सम्यक्चारित सार, तेरह विध पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्रीत्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अछत अनूप निहार, दारिद नाशै सुख भरै ।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अक्षयपद प्राप्ताये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
पहुप सुवास उदार, खेद हरै मन शुचि करै ।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नेवज विविध प्रकार, छुधा हरै थिरता करै ।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीप-जोति तम-हार, घट-पट परकाशै महा।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्रीब्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। १३८1000000000000000
जिनेन्द्र अर्चना
आप आप थिर नियत नय, तप संयम व्यवहार । स्व-पर-दया दोनों लिये, तेरहविध दुःखहार ।।
(चौपाई मिश्रित गीता) सम्यक्चारित्र-रतन सँभालौ, पाँच पाप तजि के व्रत पालौ। पंच समिति त्रय गुप्ति गहीजै, नर-भव सफल करहु तन छीजै।।
छीजै सदा तन को जतन यह, एक संजम पालिए। बहु रुल्यो नरक-निगोदमाहीं, विषय-कषायनि टालिए।। शुभ-करम जोग सुघाट आया, पार हो दिन जात है। 'द्यानत' धरम की नाव बैठो, शिव-पुरी कुशलात है।। ॐ ह्रीं श्री त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय जयमाला पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा।
समुच्चय जयमाला
(दोहा) सम्यग्दरशन-ज्ञान-व्रत, इन बिन मुक्ति न होय ।
अन्ध पंगु अरु आलसी, जुदे जलैं दव लोय ।। जिनेन्द्र अर्चना 1000
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