Book Title: Jinendra Archana
Author(s): Akhil Bansal
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 162
________________ ३२२ (६) महिमा है, अगम जिनागम की ।। टेक ॥। जाहि सुनत जड़ भिन्न पिछानी, हम चिन्मूरति आतम की ॥ १ ॥ रागादिक दुःख कारन जानें, त्याग बुद्धि दीनी भ्रम की ॥ २ ॥ ज्ञान-ज्योति जागी उर अन्तर, रुचि बाढ़ी पुनि शम-दम की ॥ ३ ॥ कर्मबंध की भई निरजरा, कारण परम पराक्रम की ॥ ४ ॥ 'भागचन्द' शिव-लालच लाग्यो, पहुँच नहीं है जहँ जम की ॥ ५ ॥ (61) चरणों में आ पड़ा हूँ, हे द्वादशांग वाणी । मस्तक झुका रहा हूँ, हे द्वादशांग वाणी । । टेक ॥। मिथ्यात्व को नशाया, निज तत्त्व को प्रकाशा । आपा-पराया-भासा, हो के समानी ।। १ ।। भानु षट् द्रव्य को बताया, स्याद्वाद को जताया । भवफद से छुड़ाया, सच्ची जिनेन्द्र वाणी ॥ २ ॥ रिपु चार मेरे मग में, जंजीर डाले पग में । ठाड़े हैं मोक्ष-मग में, तकरार मोसों ठानी।। ३ ।। दे ज्ञान मुझको माता, इस जग से तोडूं नाता । होवे 'सुदर्शन' साता, नहिं जग में तेरी सानी ॥ ४ ॥ (c) नित पीज्यो धी धारी, जिनवाणी सुधा-सम जानिके ॥ टेक ॥। वीर मुखारविंद प्रकटी, जन्म- जरा भयटारी । गौतमादि गुरु-उर घट व्यापी, परम सुरुचि करतारी ॥ १ ॥ सलिल समान कलिलमलगंजन, बुधमनरंजन हारी। भंजन विभ्रम धूलि प्रभंजन, मिथ्या जलद निवारी ||२ || कल्याणकतरु उपवनधरिनी, तरनी भवजलतारी । बंधविदारन पैनी छैनी, मुक्ति नसैनी सारी ।। ३ ।। जिनेन्द्र अर्चना 162 स्व-परस्वरूप प्रकाशन को यह, भानुकला अविकारी । मुनिमनकुमुदिनि-मोदनशशिभा, शमसुख सुमन सुवारी ॥४ ॥ जाके सेवत बेवत निजपद, नसत अविद्या सारी । तीन लोकपति पूजत जाको, जान त्रिजग हितकारी ।। ५ ।। कोटि जीभ सों महिमा जाकी, कहि न सके पविधारी । 'दौल' अल्पमति केम कहै यह, अधम उधारन हारी || ६ || (९) साँची तो गंगा यह वीतरागवाणी । अविच्छिन्न धारा निजधर्म की कहानी ॥ टेक ॥ जामें अति ही विमल अगाध ज्ञानपानी। जहाँ नहीं संशयादि पंक की निशानी ॥ १ ॥ सप्तभंग जहँ तरंग उछलत सुखदानी। संतचित मरालवृन्द रमैं नित्य ज्ञानी ।। २ ।। जाके अवगाहन शुद्ध होय प्राणी । 'भागचन्द' निहचैं घटमाहिं या प्रमानी || ३ || (१०) धन्य-धन्य है घड़ी आज की, जिनधुनि श्रवणपरी । तत्त्वप्रतीत भई अब मेरे, मिथ्यादृष्टि टरी । टेक ।। जड़ तैं भिन्न लखी चिन्मूरत, चेतन स्वरस भरी । अहंकार ममकार बुद्धि पुनि, पर में सब परिहरी ॥ १ ॥ पाप-पुण्यविधि बन्ध अवस्था, भासी अति दुःखभरी । वीतराग-विज्ञानभावमय, परनति अति विस्तरी ।। २ ।। चाह दाह विनसी बरसी पुनि, समता मेघ झरी । बाढ़ी प्रीति निराकुल पद सों, 'भागचन्द' हमरी || ३ || १. इन्द्र जिनेन्द्र अर्चना (३२३

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