Book Title: Jinendra Archana
Author(s): Akhil Bansal
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 165
________________ ३२८ गुरु भक्ति (१) ऐसे साधु सुगुरु कब मिलि हैं। । टेक ॥। आप त अरु पर को तारैं, निष्पृही निर्मल हैं ॥ १ ॥ तिल तुष मात्र संग नहिं जिनके, ज्ञान-ध्यान गुण बल हैं ॥ २ ॥ शांत दिगम्बर मुद्रा जिनकी, मन्दर तुल्य अचल हैं 'भागचन्द' तिनको नित चाहें, ज्यों कमलनि को अलि हैं ॥ ४ ॥ ।। ३ ॥ (२) धन-धन जैनी साधु जगत के तत्त्वज्ञान विलासी हो । । टेक ॥। दर्शन बोधमई निज मूरति जिनको अपनी भासी हो । त्यागी अन्य समस्त वस्तु में अहंबुद्धि दुःखदासी हो ।। १ ।। जिन अशुभोपयोग की परिणति सत्तासहित विनाशी हो । होय कदाच शुभोपयोग तो तहँ भी रहत उदासी हो ।। २ ।। छेदत जे अनादि दुःखदायक दुविधि बंध की फाँसी हो । मोह क्षोभ रहित जिन परिणति विमल मयंक विलासी हो ।। ३ ।। विषय चाह दव दाह बुझावन साम्य सुधारस रासी हो । 'भागचन्द' पद ज्ञानानन्दी साधक सदा हुलासी हो ।।४ ।। (३) परम गुरु बरसत ज्ञान झरी । हरषि - हरषि बहु गरज - गरज के मिथ्या तपन हरी । । टेक ॥। सरधा भूमि सुहावनि लागी संशय बेल हरी । भविजन मन सरवर भरि उमड़े समुझि पवन सियरी ।। १ ।। स्याद्वाद नय बिजली चमके परमत शिखर परी । चातक मोर साधु श्रावक के हृदय सु भक्ति भरी ।। २ ।। जप तप परमानन्द बढ्यो है, सुखमय नींव धरी । 'द्यानत' पावन पावस आयो, थिरता शुद्ध करी ।। ३ ।। जिनेन्द्र अर्चना 165 वे मुनिवर कब मिली हैं उपगारी । साधु दिगम्बर, नग्न निरम्बर, संवर भूषण धारी ॥ टेक ॥। कंचन - काँच बराबर जिनके, ज्यों रिपु त्यों हितकारी । महल मसान, मरण अरु जीवन, सम गरिमा अरु गारी ।। १ ।। सम्यग्ज्ञान प्रधान पवन बल, तप पावक परजारी। शोधत जीव सुवर्ण सदा जे, काय कारिमा टारी ।। २ ।। जोरि युगल कर 'भूधर' विनवे, तिन पद ढोक हमारी । भाग उदय दर्शन जब पाऊँ, ता दिन की बलिहारी || ३ || (4) ऐसे मुनिवर देखे वन में, जाके राग-द्वेष नहीं मन में । । टेक ।। ग्रीष्म ऋतु शिखर के ऊपर, मगन रहे ध्यानन में ॥ १ ॥ चातुरमास तरुतल ठाड़े, बूँद सहे छिन छिन में || २ || शीत मास दरिया के किनारे, धीरज धरें ध्यानन में ।। ३ ।। ऐसे गुरु को मैं नित प्रति ध्याऊँ, देत ढोक चरणन में ॥४॥ (६) परम दिगम्बर मुनिवर देखे, हृदय हर्षित होता है ।। आनन्द उलसित होता है, हो हो सम्यग्दर्शन होता है । । टेक ॥। वास जिनका वन-उपवन में, गिरि-शिखर के नदी तटे । वास जिनका चित्त गुफा में, आतम आनन्द में रमे ।। १ ।। कंचन - कामिनी के त्यागी, महा तपस्वी ज्ञानी ध्यानी । काया की ममता के त्यागी, तीन रतन गुण भण्डारी ।। २ ।। परम पावन मुनिवरों के, पावन चरणों में नमूं । शान्त - मूर्ति सौम्य - मुद्रा, आतम आनन्द में रहूँ ।। ३ ।। चाह नहीं है राज्य की चाह नहीं है रमणी की। चाह हृदय में एक यही है, शिव रमणी को वरने की ॥४ ॥ जिनेन्द्र अर्चना ३२९

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