Book Title: Jinendra Archana
Author(s): Akhil Bansal
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 168
________________ जो दर्शन ज्ञान चरित्र वीर्य तप, आचारों के धारी। जो मन-वच-तन का आलम्बन तज, निज चैतन्य विहारी।। शाश्वत सुखदर्शन-ज्ञान-चरित में, करते सदा बसेरा ।।३।। नित समता स्तुति वन्दन अरु, स्वाध्याय सदा जो करते। प्रतिक्रमण और प्रति-आख्यान कर, सब पापों को हरते।। चैतन्यराज की अनुपम निधियाँ, जिसमें करें बसेरा ।।४।। (१४) होली खेलें मुनिराज शिखर वन में, रे अकेले वन में, मधुवन में। मधुवन में आज मची रे होली, मधुवन में ।।टेक ।। चैतन्य-गुफा में मुनिवर बसते, अनन्त गुणों में केली करते। एक ही ध्यान रमायो वन में, मधुवन में ।।होली. ।।१।। ध्रुवधाम ध्येय की धूनी लगाई, ध्यान की धधकती अग्नि जलाई। विभाव का ईंधन जलायें वन में, मधुवन में ।।होली. ।।२।। अक्षय घट भरपूर हमारा, अन्दर बहती अमृत धारा। पतली धार न भाई मन में, मधुवन में ।।होली. ।।३।। हमें तो पूर्ण दशा ही चहिये, सादि-अनंत का आनंद लहिये। निर्मल भावना भाई वन में, मधुवन में ।।होली. ।।४।। पिता झलक ज्यों पुत्र में दिखती, जिनेन्द्र झलक मुनिराज चमकती। श्रेणी माँडी पलक छिन में, मधुवन में ।।होली. ॥५।। नेमिनाथ गिरनार पे देखो, शत्रुजय पर पाण्डव देखो। केवलज्ञान लियो है छिन में, मधुवन में ।।होली. ।।६।। बार-बार वन्दन हम करते, शीश चरण में उनके धरते । भव से पार लगाये वन में, मधुवन में ।।होली. ।।७।। मोहमहारिपु जानिकैं, छाड्यो सब घरबार । होय दिगम्बर वन बसे, आतम शुद्ध विचार ।।ते गुरु. ।। रोग उरग-बिल वपु गिण्यो, भोग भुजंग समान । कदली तरु संसार है, त्याग्यो सब यह जान ।।ते गुरु. ।। रत्नत्रयनिधि उर धरै, अरु निरग्रन्थ त्रिकाल । मार्यो कामखवीस को, स्वामी परम दयाल ।।ते गुरु. ।। पंच महाव्रत आदरें, पाँचों समिति समेत । तीन गुपति पालैं सदा, अजर अमर पद हेत ।।ते गुरु.।। धर्म धरै दशलाछनी, भावै भावन सार। सहैं परीषह बीस द्वै, चारित-रतन-भण्डार ।।ते गुरु. ।। जेठ तपै रवि आकरो, सूखै सरवर नीर।। शैल-शिखर मुनि तप तपैं, दाझै नगन शरीर ।।ते गुरु. ।। पावस रैन डरावनी, बरसै जलधर धार।। तरुतल निवसै तब यती, बाजै झंझा ब्यार ।।ते गुरु. ।। शीत पडै कपि-मद गलैं, दाहै सब वनराय। तालतरंगनि के तटैं, ठाड़े ध्यान लगाय ।।ते गुरु. ।। इहि विधि दुद्धर तप तपैं, तीनों काल मँझार । लागे सहज सरूप मैं, तनसों ममत निवार ।।ते गुरु.।। पूरब भोग न चिंतवैं, आगम बांछ नाहिं । चहुँगति के दुःखसों डरै, सुरति लगी शिवमाहिं ।।ते गुरु. ।। रंग महल में पौढ़ते, कोमल सेज विछाय।। ते पच्छिम निशि भूमि में, सोवें सँवरि काय ।।ते गुरु. ।। गजचढ़ि चलते गरवसों, सेना सजि चतुरंग। निरखि-निरखि पग वे धरै, पालैं करुणा अंग ।।ते गुरु. ।। वे गुरु चरण जहाँ धरै, जग में तीरथ जेह । सो रज मम मस्तक चढ़ो, 'भूधर' माँगे एह ।।ते गुरु. ।। जिनेन्द्र अर्चना/200000 ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जिहाज । आप तिरहिं पर तारहिं, ऐसे श्री ऋषिराज ।।ते गुरु. ।। जिनेन्द्र अर्चना ३३४/ ___168

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