Book Title: Jinendra Archana
Author(s): Akhil Bansal
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 150
________________ होय निःशल्य तजो सब दुविधा, आतमराम सुध्यावो। जब परगति को करहु पयानो, परम तत्त्व उर लावो।। मोहजाल को काट पियारे, अपनो रूप विचारो। मृत्यु मित्र उपकारी तेरो, यों निश्चय उर धारो ।।५३ ।। (दोहा) मृत्यु महोत्सव पाठ को, पढ़ो सुनो बुधिवान । सरधा धर नित सुख लहो, 'सूरचन्द' शिवथान ।। पंच उभय नव एक नभ, सम्बत् सो सुखदाय। आश्विन श्यामा सप्तमी, कह्यो पाठ मन लाय।।५४।। चाणक मुनि गौघर के माहीं, मून्द अगिनि परजाल्यो। श्रीगुरु उर समभाव धारकै, अपनो रूप सम्हाल्यो।। यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है? मृत्यु महोत्सव भारी ।।४६ ।। सात शतक मुनिवर दुःख पायो, हथनापुर में जानो। बलि ब्राह्मणकृत घोर उपद्रव, सो मुनिवर नहिं मानो।। यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है? मृत्यु महोत्सव भारी ।।४७ ।। लोहमयी आभूषण गढ़के, ताते कर पहराये। पाँचों पांडव मुनि के तन में, तो भी नाहिं चिगाये।। यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है? मृत्यु महोत्सव भारी ।।४८।। और अनेक भये इस जग में, समता-रस के स्वादी। वे ही हमको हों सुखदाता, हरि हैं टेव प्रमादी ।। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरन तप, ये आराधन चारों। ये ही मोकों सुख के दाता, इन्हें सदा उर धारों ।।४९।। यों समाधि उरमाहीं लावो, अपनो हित जो चाहो। तज ममता अरु आठों मद को. ज्योतिस्वरूपी ध्यावो।। जो कोई नित करत पयानो, ग्रामांतर के काजै। सो भी शकुन विचारै नीके, शुभ के कारण साजै ।।५० ।। मात-पितादिक सर्व कुटुम सब, नीके शकुन बनावै। हल्दी धनिया पुंगी अक्षत, दूब दही फल लावै ।। एक ग्राम जाने के कारण, करें शुभाशुभ सारे । जब परगति को करत पयानो, तब नहिं सोचो प्यारे।।५१ ।। सब कुटुम जब रोवन लागै, तोहि रुलावै सारे । ये अपशकुन करै सुन तोकों, तू यों क्यों न विचारै ।। अब परगति को चालत बिरियाँ, धर्मध्यान उर आनो। चारों आराधन आराधो, मोहतनों दुख हानो ।।५२ ।। २९८0000000000000 ID00000000000 जिनेन्द्र अर्चना श्री सिद्धचक्र माहात्म्य श्री सिद्धचक्र गुणगान करो मन आन भाव से प्राणी, कर सिद्धों की अगवानी ।।टेक।। सिद्धों का सुमरन करने से, उनके अनुशीलन चिन्तन से, प्रकटै शुद्धात्मप्रकाश, महा सुखदानी 555 पाओगे शिव रजधानी ।।श्री सिद्धचक्र. ॥१॥ श्रीपाल तत्त्वश्रद्धानी थे, वे स्व-पर भेदविज्ञानी थे, निज-देह-नेह को त्याग, भक्ति उर आनी 555 ___हो गई पाप की हानि ।।श्री सिद्धचक्र. ।।२।। मैना भी आतमज्ञानी थी, जिनशासन की श्रद्धानी थी, अशुभभाव से बचने को, जिनवर की पूजन ठानी 555 कर जिनवर की अगवानी । श्री सिद्धचक्र. ।।३।। भव-भोग छोड़ योगीश भये, श्रीपाल ध्यान धरि मोक्ष गये, दूजे भव मैना पावे शिव रजधानी555 केवल रह गयी कहानी ।।श्री सिद्धचक्र. ||४|| प्रभु दर्शन-अर्चन-वन्दन से, मिटता है मोह-तिमिर मन से, निज शुद्ध-स्वरूप समझने का, अवसर मिलता भवि प्राणी 555 ___ पाते निज निधि विसरानी ।।श्री सिद्धचक्र. ।।५।। भक्ति से उर हर्षाया है, उत्सव युत पाठ रचाया है, जब हरष हिये न समाया, तो फिर नृत्य करन की ठानी 555 जिनवर भक्ति सुखदानी ।।श्री सिद्धचक्र. ।।६।। सब सिद्धचक्र का जाप जपो, उन ही का मन में ध्यान धरो, नहि रहे पाप की मन में नाम निशानी 555 बन जाओ शिवपथ गामी ।।श्री सिद्धचक्र. ।।७।। जो भक्ति करे मन-वच-तन से, वह छूट जाये भव-बंधन से, भविजन! भज लो भगवान, भगति उर आनी 555 मिट जैहै दुखद कहानी ।।श्री सिद्धचक्र. ।।८।। जिनेन्द्र अर्चना 1000 २९९ 150

Loading...

Page Navigation
1 ... 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172