Book Title: Jinendra Archana
Author(s): Akhil Bansal
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 151
________________ बारह भावना (पं. जयचन्दजी छाबड़ा कृत) द्रव्य रूप करि सर्व थिर, परजय थिर है कौन । द्रव्यदृष्टि आपा लखो, परजय नय करि गौन ।।१।। शुद्धातम अरु पंच गुरु, जग में सरनौ दोय । मोह-उदय जिय के वृथा, आन कल्पना होय ।।२।। पर द्रव्यन तैं प्रीति जो, है संसार अबोध । ताको फल गति चार में, भ्रमण कह्यो श्रुत शोध ।।३।। परमारथ तैं आत्मा, एक रूप ही जोय । मोह निमित्त विकल्प घने, तिन नासे शिव होय ।।४।। अपने-अपने सत्त्व कूँ, सर्व वस्तु विलसाय । ऐसे चितवै जीव तब, पर” ममत न थाय ।।५।। निर्मल अपनी आत्मा, देह अपावन गेह। जानि भव्य निज भाव को, यासों तजो सनेह ।।६ ।। आतम केवल ज्ञानमय, निश्चय-दृष्टि निहार । सब विभाव परिणाममय, आस्रवभाव विडार ।।७।। निजस्वरूप में लीनता, निश्चय संवर जानि । समिति गुप्ति संजम धरम, धरै पाप की हानि ।।८।। संवरमय है आत्मा, पूर्व कर्म झड़ जाय । निजस्वरूप को पाय कर, लोक शिखर ठहराय ।।९।। लोकस्वरूप विचारि के, आतम रूप निहारि । परमारथ व्यवहार गुणि, मिथ्याभाव निवारि ।।१०।। बोधि आपका भाव है, निश्चय दुर्लभ नाहिं। भव में प्रापति कठिन है, यह व्यवहार कहाहिं ।।११।। दर्श-ज्ञानमय चेतना, आतम धर्म बखानि । दया-क्षमादिक रतनत्रय, यामें गर्भित जानि ।।१२।। 1000000जिनेन्द्र अर्चना बारह भावना (पं. भूधरदासजी कृत) राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार । मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार ।।१।। दल बल देवी देवता, मात-पिता परिवार । मरती बिरियाँ जीव को, कोई न राखन हार ।।२।। दाम बिना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान । कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ।।३।। आप अकेलो अवतरे, मरे अकेलो होय । यूँ कबहूँ इस जीव को, साथी सगा न कोय ।।४।। जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपनो कोय । घर संपति पर प्रकट ये, पर हैं परिजन लोय ।।५।। दिपै चाम चादर मढ़ी, हाड़ पींजरा देह । भीतर या सम जगत में, और नहीं घिन गेह ।।६।। मोह-नींद के जोर, जगवासी घूमें सदा । कर्मचोर चहुँ ओर, सरवस लूटें सुध नहीं ।।७।। सत्गुरु देय जगाय, मोह-नींद जब उपशमै । तब कछु बनै उपाय, कर्म-चोर आवत रुकैं ।।८।। ज्ञान-दीप तप तेल भर, घर शोधै भ्रम छोर । या विधि बिन निकसैं नहीं, बैठे पूरब चोर ।। पंच महाव्रत संचरन, समिति पंच परकार । प्रबल पंच इन्द्रिय-विजय, धार निर्जरा सार ।।९।। चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुष संठान । तामें जीव अनादि तैं, भरमत हैं बिन ज्ञान ।।१०।। धन कन कंचन राजसुख, सबहिं सुलभकर जान । दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान ।।११।। जाँचे सुर तरु देय सुख, चिन्तत चिन्ता रैन । बिन जाँचै बिन चिन्तये, धर्म सकल सुख दैन ।।१२।। जिनेन्द्र अर्चना 10000 151

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