Book Title: Jinendra Archana
Author(s): Akhil Bansal
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 88
________________ युगपद् विशद् सकलार्थ झलकें नित्य केवलज्ञान में । त्रैलोक्य- दीपक वीर - जिन दीपक चढ़ाऊँ क्या तुम्हें ।। संतप्त - मानस शान्त हों जिनके गुणों के गान में । वे वर्द्धमान महान जिन विचरें हमारे ध्यान में ।। ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा । जो कर्म ईंधन दहन पावक पुंज पवन समान हैं। जो हैं अमेय प्रमेय पूरण ज्ञेय ज्ञाता ज्ञान हैं। । सन्तप्त ।। ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा । सारा जगत फल भोगता नित पुण्य एवं पाप का । सब त्याग समरस निरत जिनवर सफल जीवन आपका । । सन्तप्त. ।। ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा । इस अर्घ्य का क्या मूल्य है अनर्घ्य पद के सामने । उस परम पद को पा लिया हे पतितपावन! आपने । । सन्तप्त. ।। ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । पंचकल्याणक अर्घ्य (सोरठा) सित छठवीं आषाढ़, माँ त्रिशला के गर्भ में। अन्तिम गर्भावास, यही जान प्रणयूँ प्रभो ।। ॐ ह्रीं आषाढशुक्लषष्ठ्यां गर्भमंगलमण्डिताय श्री महावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। तेरस दिन सित चैत, अन्तिम जन्म लियो प्रभू । नृप सिद्धार्थ निकेत, इन्द्र आय उत्सव कियो । ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लत्रयोदश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्री महावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। दशमी मगसिर कृष्ण, वर्द्धमान दीक्षा धरी । कर्म कालिमा नष्ट करने आत्मरथी बने ।। ॐ ह्रीं मार्गशीर्ष कृष्णदशम्यां तपोमंगलमंडिताय श्री महावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। १७४/////////// जिनेन्द्र अर्चना 88 सित दशमी बैसाख, पायो केवलज्ञान जिन । अष्ट द्रव्यमय अर्घ्य, प्रभुपद पूजा करें हम ।। ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लदशम्यां ज्ञानमंगलमंडिताय श्री महावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। कार्तिक मावस श्याम, पायो प्रभु निर्वाण तुम । पावा तीरथधाम, दीपावली मनाय हम ।। ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्ण अमावस्यायां मोक्षमंगलमंडिताय श्री महावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (दोहा) यद्यपि युद्ध नहीं कियो, नाहिं रखे असि तीर । परम अहिंसक आचरण, तदपि बने महावीर ।। (पद्धरि) हे मोह-महादलदलन वीर, दुद्धर तप संयम धरण धीर । तुम हो अनन्त आनन्दकन्द, तुम रहित सर्व जग दंद- फंद ।। अघकरन करन- मन- हरनहार, सुखकरन हरन भवदुख अपार । सिद्धार्थ तनय तनरहित देव, सुर-नर- किन्नर सब करत सेव ।। मतिज्ञान रहित सन्मति जिनेश, तुम राग-द्वेष जीते अशेष । शुभ-अशुभ राग की आग त्याग, हो गये स्वयं तुम वीतराग ।। षट् द्रव्य और उनके विशेष, तुम जानत हो प्रभुवर अशेष । सर्वज्ञ - वीतरागी जिनेश, जो तुम को पहचाने विशेष ।। वे पहचानें अपना स्वभाव, वे करें मोह-रिपु का अभाव । वे प्रकट करें निज-पर विवेक, वे ध्यावें निज शुद्धात्म एक ।। निज आतम में ही रहें लीन, चारित्र मोह को करें क्षीण । उनका हो जाये क्षीण राग, वे भी हो जायें वीतराग ।। जो हुए आज तक अरीहंत, सबने अपनाया यही पंथ । उपदेश दिया इस ही प्रकार, हो सबको मेरा नमस्कार ।। जिनेन्द्र अर्चना १७५

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