Book Title: Jinendra Archana
Author(s): Akhil Bansal
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 121
________________ समुच्चय पूजन का अर्घ्य अष्टम वसुधा पाने को, कर में ये आठों द्रव्य लिये। सहज शुद्ध स्वाभाविकता से, निज में निज गुण प्रकट किये।। यह अर्घ्य समर्पण करके मैं, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ। विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यो अनन्तानन्तसिद्धपरमेष्ठिभ्यश्च अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा। विदेहक्षेत्र में विद्यमान बीस तीर्थंकरों का अर्घ्य जल फल आठों दर्व अरघ कर प्रीति धरी है। गणधर इन्द्रनि हरौं थुति पूरी न करी है।। 'द्यानत' सेवक जानके (हो) जगते लेहु निकार । सीमंधर जिन आदि दे (स्वामी) बीस विदेह मँझार ।। श्री जिनराज हो, भव तारणतरण जिहाज, श्री महाराज हो।। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरादिविद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। सीमंधर भगवान का अर्घ्य । निर्मल जल-सा प्रभु निज स्वरूप, पहचान उसी में लीन हुए। भव-ताप उतरने लगा तभी, चन्दन-सी उठी हिलोर हिये ।। अभिराम-भवन प्रभु अक्षत का, सब शक्ति-प्रसून लगे खिलने। क्षुत्-तृषा अठारह दोष क्षीण, कैवल्य प्रदीप लगा जलने ।। मिट चली चपलता योगों की, कर्मों के ईंधन ध्वस्त हुए। फल हुआ प्रभो ! ऐसा मधुरिम, तुम धवल निरंजन स्वस्थ हुए।। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। महावीर भगवान का अर्घ्य इस अर्घ्य का क्या मूल्य है अन्-अर्घ्य पद के सामने? उस परम-पद को पा लिया, हे पतित-पावन आपने ।। संतप्त-मानस शान्त हों, जिनके गुणों के गान में। वे वर्द्धमान महान जिन विचरें हमारे ध्यान में ।। ॐ ह्रीं श्री वर्द्धमानजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा। २४०000 200000 जिनेन्द्र अर्चना पंच-बालयति का अर्घ्य सजि वसुविधि द्रव्य मनोज्ञ, अर्घ्य बनावत हैं। वसुकर्म अनादि संयोग, ताहि नसावत हैं ।। श्री वासु पूज्य-मल्लि-नेमि, पारस वीर अति । नमूं मन-वच-तन धरि प्रेम, पाँचों बालयति ।। ॐ ह्रीं श्रीवासपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ-महावीर-पंचबालयतितीर्थकरेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा। नन्दीश्वर द्वीप का अर्घ्य । यह अरघ कियो निज हेत, तुमको अरपतु हों। 'द्यानत' कीनो शिवखेत, भूमि समरपतु हो ।। नन्दीश्वर श्री जिनधाम, बावन पुंज करों। वसुदिन प्रतिमा अभिराम, आनन्द भाव धरों ।। ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणे द्विपंचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो अनयंपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। दशलक्षण धर्म का अर्घ्य (सोरठा) आठों दरव सँवार, 'द्यानत' अधिक उछाह सों। भव-आताप निवार, दशलक्षण पूजों सदा ।। ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्मागाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। रत्नत्रय का अर्घ्य (सोरठा) आठों दरव निरधार, उत्तम सों उत्तम लिये। जनम रोग निरवार, सम्यक् रत्नत्रय भजूं ।। ॐ ह्रीं सम्यकलत्रयाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यग्दर्शन का अर्घ्य (सोरठा) जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु । सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजों सदा ।। ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा। जिनेन्द्र अर्चना/10000 121

Loading...

Page Navigation
1 ... 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172