Book Title: Jinendra Archana
Author(s): Akhil Bansal
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
View full book text
________________
लाख बात की बात, यहै निश्चय उर लाओ। तोरि सकल जग दन्द-फन्द, निज आतम ध्याओ।।९।। सम्यग्ज्ञानी होय बहुरि, दृढ़ चारित लीजै । एकदेश अरु सकलदेश, तसु भेद कहीजै ।। त्रसहिंसा को त्याग, वृथा थावर न सँहारै । पर-वधकार कठोर निंद्य, नहिं वयन उचारै ।।१०।। जल मृतिका बिन और, नाहिं कछु गहै अदत्ता। निज वनिता बिन सकल, नारि सों रहे विरत्ता ।। अपनी शक्ति विचार, परिग्रह थोरो राखै । दश दिशि गमन-प्रमान ठान, तसु सीम न नाखै ।।११।। ताहू में फिर ग्राम, गली गृह बाग बजारा । गमनागमन प्रमान, ठान अन सकल निवारा ।। काहू की धन-हानि, किसी जय-हार न चिन्तै। देय न सो उपदेश, होय अघ बनिज कृषी तैं ।।१२।। कर प्रमाद जल भूमि, वृक्ष पावक न विराधै । असि धनु हल हिंसोपकरन, नहिं दे जस लाधै ।। राग-द्वेष करतार कथा, कबहूँ न सुनीजै ।
और हु अनरथदण्ड, हेतु अघ तिन्हैं न कीजै ।।१३ ।। धरि उर समता भाव, सदा सामायिक करिये । परब चतुष्टय माहिं, पाप तज प्रोषध धरिये ।। भोग और उपभोग, नियम करि ममत निवारै । मुनि को भोजन देय, फेर निज करहिं अहारै ।।१४ ।। बारह व्रत के अतीचार, पन पन न लगावै । मरण समय संन्यास धारि, तसु दोष नशावै ।। यों श्रावक व्रत पाल, स्वर्ग सोलम उपजावै । तहँ तैं चय नर-जन्म पाय, मुनि है शिव जावै।।१५।।
पाँचवी ढाल बारह भावना
(चाल छन्द) मुनि सकलव्रती बड़भागी, भव-भोगन तैं वैरागी। वैराग्य उपावन माई, चिंतो अनुप्रेक्षा भाई ।।१।। इन चिन्तत सम-सुख जागै, जिमि ज्वलन पवन के लागै। जब ही जिय आतम जानै, तब ही जिय शिव-सुख ठानै।।२।। जोबन गृह गोधन नारी, हय गय जन आज्ञाकारी। इन्द्रीय-भोग छिन थाई, सुरधनु चपला चपलाई ।।३ ।। सुर असुर खगाधिप जेते, मृग ज्यों हरि काल दले ते। मणि मन्त्र-तन्त्र बहु होई, मरतें न बचावे कोई ।।४ ।। चहुँ गति दुःख जीव भरे हैं, परिवर्तन पंच करे हैं। सब विधि संसार-असारा, यामैं सुख नाहिं लगारा ।।५।। शुभ-अशुभ करम फल जेते, भोगे जिय एक हि तेते। सुत दारा होय न सीरी, सब स्वारथ के हैं भीरी ।।६।। जल-पय ज्यौं जिय तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला । तो प्रकट जुदे धन धामा, क्यों है इक मिलि सुत रामा ।।७।। पल रुधिर राध मल थैली, कीकस वसादि तैं मैली। नव द्वार बहै घिनकारी, अस देह करै किम यारी ।।८।। जो योगन की चपलाई, ताते है आस्रव भाई। आस्रव दुखकार घनेरे, बुधिवन्त तिन्हैं निरवेरे ।।९।। जिन पुण्य-पाप नहिं कीना, आतम अनुभव चित दीना। तिन ही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके ।।१०।। निज काल पाय विधि झरना, तासों निज काज न सरना।
तप करि जो कर्म खिपावै, सोई शिवसुख दरसावै ।।११।। जिनेन्द्र अर्चना
२६८0000000000000
U.जिनेन्द्र अर्चना
125

Page Navigation
1 ... 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172