Book Title: Jinendra Archana
Author(s): Akhil Bansal
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 134
________________ पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तो मद ठाने । मद न रूप कौ, मद न ज्ञान कौ, धन-बल को मद भानै ।।१३।। तप कौ मद न मद जु प्रभुता कौ, करै न सो निज जानै । मद धारै तो येहि दोष वसु, समकित को मल ठाने ।। कुगुरु कुदेव कुवृष सेवक की, नहिं प्रशंस उचरै है। जिन-मुनि जिन-श्रुत बिन कुगुरादिक, तिन्है न नमन कर है।।१४।। दोष-रहित गुण-सहित सुधी जे, सम्यग्दरश सजै हैं। चरितमोहवश लेश न संजम, पै सुरनाथ जजै हैं ।। गेही पै, गृह में न रचे ज्यों, जल तैं भिन्न कमल है। नगर-नारि को प्यार यथा, कादे में हेम अमल है ।।१५।। प्रथम नरक बिन षट् भू ज्योतिष, वान भवन फँढ नारी। थावर विकलत्रय पशु में नहिं, उपजत सम्यक् धारी ।। तीनलोक तिहुँकाल माहिं नहिं, दर्शन सो सुखकारी। सकल धरम को मूल यही, इस बिन करनी दुखकारी ।।१६ ।। मोक्षमहल की परथम सीढ़ी, या बिन ज्ञान-चरित्रा। सम्यकता न लहै सो दर्शन, धारौ भव्य पवित्रा ।। 'दौल' समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवै। यह नरभव फिर मलिन कठिन है, जो सम्यक् नहिं होवै।।१७।। चौथी ढाल तास भेद दो हैं परोक्ष, परतछि तिन माहीं। मति-श्रुत दोय परोक्ष, अक्ष मन तैं उपजाहीं ।। अवधि मनपर्जयज्ञान, दो हैं देश प्रतच्छा। द्रव्य क्षेत्र परिमाण लिये, जानै जिय स्वच्छा ।।३।। सकल द्रव्य के गुन अनन्त, परजाय अनन्ता। जानैं एकै काल प्रकट, केवलि भगवन्ता ।। ज्ञान-समान न आन, जगत में सुख को कारण। इह परमामृत जन्म-जरा-मृतु रोग निवारण ।।४ ।। कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान बिन कर्म झरै जे । ज्ञानी के छिन माहिं त्रिगुप्ति तैं सहज टौँ ते ।। मुनिव्रत धार अनन्त बार, ग्रीवक उपजायौ । पै निज आतम-ज्ञान बिना, सुख लेश न पायौ ।।५।। तातें जिनवर कथित, तत्त्व-अभ्यास करीजै । संशय विभ्रम मोह त्याग, आपौ लख लीजै ।। यह मानुष पर्याय, सुकुल सुनिवौ जिनवानी। इह विधि गये न मिलै, सुमणि ज्यों उदधि समानी।।६।। धन समाज गज बाज, राज तो काज न आवै। ज्ञान आपको रूप भये, फिर अचल रहावै ।। तास ज्ञान को कारण, स्व-पर विवेक बखानो। कोटि उपाय बनाय, भव्य ताको उर आनो ।।७।। जे पूरब शिव गये, जाहिं अरु आगे जैहैं। सो सब महिमा ज्ञानतनी, मुनिनाथ कहै हैं ।। विषय चाह दव दाह, जगत जन अरनि दझावै। तास उपाय न आन, ज्ञान घनघान बुझावै ।।८।। पुण्य-पाप फल माहि, हरख बिलखौ मत भाई। यह पुद्गल परजाय, उपजि विनसै फिर थाई।। जिनेन्द्र अर्चना 10000 (दोहा) सम्यक् श्रद्धा धारि पुनि, सेवहु सम्यग्ज्ञान । स्व-पर अर्थ बहु धर्मजुत, जो प्रकटावन भान ।।१।। (रोला) सम्यक् साथै ज्ञान होय, पै भिन्न अराधौ । लक्षण श्रद्धा जान, दुहू में भेद अबाधौ ।। सम्यक् कारण जान, ज्ञान कारज है सोई। युगपत् होते हू, प्रकाश दीपक रौं होई ।।२।। २६६0000000000000 । जिनेन्द्र अर्चना HINA 134

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