Book Title: Jinendra Archana
Author(s): Akhil Bansal
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 122
________________ सम्यज़ान का अर्घ्य (सोरठा) जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु । सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजों सदा ।। ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अन_पदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक्चारित्र का अर्घ्य (सोरठा) जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु । सम्यक् चारितसार, तेरह विधि पूजों सदा ।। ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। पंचमेरु का अर्घ्य आठ दरबमय अरघ बनाय, 'द्यानत' पूजौं श्रीजिनराय। महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ।। पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करहुँ प्रणाम। महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ।। ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि-अशीतिजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा। सोलहकारण का अर्घ्य जल फल आठों दरब चढ़ाय, 'द्यानत' वरत कों मनलाय। परमगुरु हो, जय-जय नाथ परमगुरु हो ।। दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकर पद पाय । परमगुरु हो, जय-जय नाथ परमगुरु हो ।। ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यो अनयंपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा। महाऽर्थ्य मैं देव श्री अरहंत पूजूं, सिद्ध पूजूं चाव सों। आचार्य श्री उवझाय पूजूं, साधु पूजू भाव सों ।। अरहन्त भाषित बैन पूर्जू, द्वादशांग रची गनी। पूजूं दिगम्बर गुरुचरण, शिवहेत सब आशा हनी ।। 200000 जिनेन्द्र अर्चना सर्वज्ञ भाषित धर्म दशविधि, दयामय पूजूं सदा । जजि भावना षोडश रत्नत्रय, जा बिना शिव नहिं कदा॥ त्रैलोक्य के कृत्रिम-अकृत्रिम, चैत्य-चैत्यालय जजूं। पंचमेरु-नन्दीश्वर जिनालय, खचर सुर पूजित भनँ।। कैलाश श्री सम्मेदगिरि, गिरनार मैं पूजूं सदा । चम्पापुरी पावापुरी पुनि, और तीरथ शर्मदा ।। चौबीस श्री जिनराज पूजूं, बीस क्षेत्र विदेह के। नामावली इक सहस वसु जय, होय पति शिव गेह के।। (दोहा) जल गंधाक्षत पुष्प चरु, दीप धूप फल लाय। सर्व पूज्य पद पूजहूँ, बहु विधि भक्ति बढ़ाय।। ॐ ह्रीं श्री अरहन्तसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो, द्वादशांगजिनवाणीभ्यो उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय, दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यो, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यः त्रिलोकसम्बन्धीकृत्रिमाकृत्रिमजिनचैत्यालयेभ्यो, पंचमेरौ अशीतिचैत्यालयेभ्यो, नन्दीश्वरद्वीपस्थद्विपंचाशज्जिनालयेभ्यो, श्री सम्मेदशिखर, गिरनारगिरि, कैलाशगिरि, चम्पापुर, पावापुर-आदिसिद्धक्षेत्रेभ्यो, अतिशयक्षेत्रेभ्यो, विदेहक्षेत्रस्थितसीमंधरादिविद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यो, ऋषभादिचतुर्विंशति-तीर्थकरेभ्यो, भगवज्जिनसहस्राष्टनामेभ्येश्च अनर्घ्यपदप्राप्तये महाऽयं निर्वपामीति स्वाहा। दरबार तुम्हारा मनहर है, प्रभु दर्शन कर हर्षाये हैं। दरबार तुम्हारे आये हैं, दरबार तुम्हारे आये हैं।।टेक।। भक्ति करेंगे चित से तुम्हारी, तृप्त भी होगी चाह हमारी। भाव रहें नित उत्तम ऐसे, घट के पट में लाये हैं। दरबार. ॥१॥ जिसने चिंतन किया तुम्हारा, मिला उसे संतोष सहारा। शरणे जो भी आये हैं, निज आतम को लख पाये हैं।।दरबार. ॥२॥ विनय यही है प्रभू हमारी, आतम की महके फुलवारी। अनुगामी हो तुम पद पावन, 'वृद्धि' चरण सिर नाये हैं।।दरबार. ॥३॥ जिनेन्द्र अर्चना २४३ 122

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