Book Title: Jinendra Archana
Author(s): Akhil Bansal
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 120
________________ अर्ध्या लि देव-शास्त्र-गुरु का अर्घ्य (गीता) (१) जल परम उज्ज्वल गंध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरूँ । वर धूप निरमल फल विविध बहु, जनम के पातक हरूँ ।। इह भाँति अर्घ्य चढ़ाय नित भवि, करत शिव पंकति मचूँ। अरहंत श्रुत सिद्धान्त गुरु, निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ । (दोहा) वसु विधि अर्घ्य संजोयकै, अति उछाह मन कीन । जासों पूजौं परम पद, देव शास्त्र गुरु तीन || ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। (२) क्षण भर निजरस को पी चेतन मिथ्यामल को धो देता है। काषायिक भाव विनष्ट किये, निज आनन्द अमृत पीता है ।। अनुपम सुख तब विलसित होता, केवल रवि जगमग करता है। दर्शन - बल पूर्ण प्रकट होता, यह ही अरहंत अवस्था है ।। यह अर्घ्य समर्पण करके प्रभु, निज गुण का अर्घ्य बनाऊँगा । और निश्चित तेरे सदृश प्रभु, अरहन्त अवस्था पाऊँगा ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । (३) बहुमूल्य जगत का वैभव यह, क्या हमको सुखी बना सकता। अरे पूर्णता पाने में, इसकी क्या है आवश्यकता ।। मैं स्वयं पूर्ण हूँ अपने में, प्रभु है अनर्घ्य मेरी माया । बहुमूल्य द्रव्यमय अर्घ्य लिये, अर्पण के हेतु चला आया ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । पंचपरमेष्ठी का अर्घ्य जल चन्दन अक्षत पुष्प दीप, नैवेद्य धूप फल लाया हूँ । अब तक के संचित कर्मों का, मैं पुंज जलाने आया हूँ ।। यह अर्घ्य समर्पित करता हूँ, अविचल अनर्घ्य पद दो स्वामी । हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव दुःख मेटो अन्तर्यामी ।। ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । २३८////// जिनेन्द्र अर्चना 120 सिद्धपरमेष्ठी का अर्घ्य (संस्कृत) (वसन्ततिलका) ज्ञानोपयोगविमलं विशदात्मरूपं, सूक्ष्मस्वभावपरमं यदनन्तवीर्यम् । कर्मोंघकक्षदहनं सुखसस्य बीजं, वन्दे सदा निरुपमं वर सिद्धचक्रम् ।। (अनुष्टुप) कर्माष्टक - विनिर्मुक्तं मोक्षलक्ष्मी-निकेतनम् । सम्यक्त्वादि - गुणोपेतं सिद्धचक्रं नमाम्यहम् || ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । सिद्धपरमेष्ठी का अर्घ्य (हिन्दी) जल पिया और चन्दन चरचा, मालायें सुरभित सुमनों की । पहनीं, तन्दुल सेये व्यंजन, दीपावलियाँ की रत्नों की ।। सुरभि धूपायन की फैली, शुभ कर्मों का सब फल पाया। आकुलता फिर भी बनी रही, क्या कारण जान नहीं पाया ।। जब दृष्टि पड़ी प्रभुजी तुम पर, मुझ को स्वभाव का भान हुआ। सुख नहीं विषय-भोगों में है, तुमको लख यह सद्ज्ञान हुआ ।। जल से फल तक का वैभव यह, मैं आज त्यागने हूँ आया। होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । चौबीस तीर्थंकर का अर्घ्य जल फल आठों शुचिसार, ताको अर्घ्य करों । तुमको अरपों भवतार, भव तरि मोक्ष वरों ।। चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द कन्द सही । पद जजत हरत भव-फन्द, पावत मोक्ष मही ।। ॐ ह्रीं श्री वृषभादिवीरांतेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । जिनेन्द्र अर्चना १२३९

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