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पंचाश्चर्य हुए प्रांगण में, हुआ गगन में जय-जयकार | धन्य-धन्य श्रेयांस दान का, तीर्थ चलाया मंगलकार ।। दान-पुण्य की यह परम्परा, हुई जगत में शुभ प्रारम्भ । हो निष्काम भावना सुन्दर, मन में लेश न हो कुछ दम्भ ।। चार भेद हैं दान धर्म के, औषधि-शास्त्र- अभय आहार । हम सुपात्र को योग्य दान दे, बनें जगत में परम उदार ।। धन वैभव तो नाशवान हैं, अतः करें जी भर कर दान | इस जीवन में दान कार्य कर, करें स्वयं अपना कल्याण ।। अक्षय तृतिया के महत्त्व को, यदि निज में प्रकटायेंगे । निश्चित ऐसा दिन आयेगा, हम अक्षय फल पायेंगे ।।
प्रभु आदिनाथ! मंगलमय, हम को भी ऐसा वर दो । सम्यग्ज्ञान महान सूर्य का, अन्तर में प्रकाश कर दो ।। ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय जयमालापूर्णार्थं निर्वपामीति स्वाहा । (दोहा)
अक्षय तृतिया पर्व की महिमा अपरम्पार ।
त्याग धर्म जो साधते, हो जाते भव पार ।।
(पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्)
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अंजुलि - जल समजवानी क्षीण होती जा रही ।
प्रत्येक पल जर्जर जरा नजदीक आती जा रही ।। काल की काली घटा प्रत्येक क्षण मँडरा रही।
किन्तु पल-पल विषय तृष्णा तरुण होती जा रही ।।
- डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल
जिनेन्द्र अर्चना
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रक्षाबन्धन पर्व पूजन
(श्री राजमलजी पवैया कृत)
(श्री अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनिवर पूजन) (छन्द- ताटंक)
जय अकम्पनाचार्य आदि सात सौ साधु मुनिव्रत धारी । बलि ने कर नरमेघ यज्ञ उपसर्ग किया भीषण भारी ।।
जय जय विष्णुकुमार महामुनि ऋद्धि विक्रिया के धारी। किया शीघ्र उपसर्ग निवारण वात्सल्य करुणाधारी ।। रक्षाबन्धन पर्व मना मुनियों का जय-जयकार हुआ। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन घर-घर मंगलाचार हुआ ।। श्री मुनि चरणकमल में वन्दूँ पाऊँ प्रभु सम्यग्दर्शन । भक्ति भाव से पूजन करके निज स्वरूप में रहूँ मगन ।।
ॐ ह्रीं श्री विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्तशतकमुनि! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्तशतकमुनि! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः, ॐ ह्रीं श्री विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्तशतकमुनि! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
जन्म-मरण के नाश हेतु प्रासुक जल करता हूँ अर्पण | राग-द्वेष परिणति अभाव कर निज परिणति में करूँ रमण ।। श्री अकम्पनाचार्य आदि मुनि सप्तशतक को करूँ नमन । मुनि उपसर्ग निवारक विष्णुकुमार महा मुनि को वन्दन ।।
ॐ ह्रीं श्री विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा । भव सन्ताप मिटाने को मैं चन्दन करता हूँ अर्पण |
देह भोग भव से विरक्त हो निज परिणति में करूँ रमण ।।श्री. ।।
ॐ ह्रीं श्री विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यः चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा । अक्षयपद अखंड पाने को अक्षत धवल करूँ अर्पण । हिंसादिक पापों को क्षय कर निज परिणति में करूँ रमण ।। श्री ।।
ॐ ह्रीं श्री विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । जिनेन्द्र अर्चना
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