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पार्श्वनाथ के चरण-युगल में क्यों बसता यह सर्प कहो। बल अनन्त लखकर जिनवर का चूर कर्म का दर्प अहो।। क्षायिक दर्शन ज्ञान वीर्य से शोभित हैं सन्मति भगवान । भरत क्षेत्र के शासन नायक अन्तिम तीर्थंकर सुखखान ।। विश्व-सरोज प्रकाशक जिनवर हो केवल-मार्तण्ड महान ।
अर्घ्य समर्पित चरण-कमल में वन्दन वर्धमान भगवान ।। ॐ ह्रीं श्री पंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालामहाऽय निर्वपामीति स्वाहा।
(सोरठा) पंचम भाव स्वरूप, पंच बालयति को नमूं। पाऊँ शुद्ध स्वरूप निज, कारण परिणाममय ।।
(पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
जयमाला
(दोहा) पंच बालयति नित बसो, मेरे हृदय मँझार । जिनके उर में बस रहा, प्रिय चैतन्य कुमार ।।
(छप्पय) प्रिय चैतन्य कुमार सदा परिणति में राजे। पर-परिणति से भिन्न सदा निज में अनुरागे। दर्शन-ज्ञानमयी उपयोग सुलक्षण शोभित । जिसकी निर्मलता पर आतम ज्ञानी मोहित ।। ज्ञायक त्रैकालिक बालयति, मम परिणति में व्याप्त हो। मैं नमूं बालयति पंच को, पंचम गति पद प्राप्त हो ।।
(वीरछन्द) धन्य-धन्य हे वासुपूज्य जिन ! गुण अनन्त में करो निवास । निज आश्रित परिणति में शाश्वत महक रही चैतन्य सुवास ।। सत् सामान्य सदा लखते हो क्षायिक दर्शन से अविराम । तेरे दर्शन से निज दर्शन पाकर हर्षित हूँ गुणखान ।। मोह-मल्ल पर विजय प्राप्त कर महाबली हे मल्लि जिनेश । निज गुण परिणति में शोभित हो शाश्वत मल्लिनाथ परमेश ।। प्रतिपल लोकालोक निरखते केवलज्ञान स्वरूप चिदेश । विकसित हो चित् लोक हमारा तव किरणों से सदा दिनेश ।। राजमती तज नेमि जिनेश्वर ! शाश्वत सुख में लीन सदा। भोक्ता-भोग्य विकल्प विलय कर निज में निज का भोग सदा।। मोह रहित निर्मल परिणति में करते प्रभुवर सदा विराम । गुण अनन्त का स्वाद तुम्हारे सुख में बसता है अविराम ।। जिनका आत्म-पराक्रम लख कर कमठ शत्र भी हआ परास्त।
क्षायिक श्रेणी आरोहण कर मोह शत्रु को किया विनष्ट ।। १८२00000000
0000 0000000 जिनेन्द्र अर्चना
चरखा चलता नाँहि, चरखा हुआ पुराना। पग-खूटे दो हालन लागे, उर मदरा खखराना । छींदी हुई पाँखड़ी पाँसू, फिरे नाँहि मनमाना ।। रसना तकली ने बल खाया, सो अब कैसे खूटे । शब्द-सूत सूधा नहीं निकले, घड़ि-घड़ि पल-पल टूटे।। आयु-माल का नाँहि भरोसा, अंग चलावे सारे । रोज इलाज मरम्मत चाहे, वैद-बढ़ि ही हारे ।। नया चरखला रंगा चंगा, सबका चित्त चुरावै। पलटा बरन गये गुल अगले, अब देखें नहिं भावै ।। मोटा महीं कातकर भाई! कर अपना सुरझेरा। अन्त आग में ईंधन होगा, “भूधर” समझ सबेरा ।।
जिनेन्द्र अर्चना/2000