Book Title: Jinendra Archana
Author(s): Akhil Bansal
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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कलि चैत चतुर्थी आई, प्रभु केवलज्ञान उपाई।
तब प्रभु उपदेश जु कीना, भवि जीवन को सुख दीना ।। ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय चैत्रकृष्णचतुर्थ्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अध्य निर्वपामीति स्वाहा।
सित सातै सावन आई, शिव-नारि वरी जिन राई।
सम्मेदाचल हरि माना, हम पूजें मोक्ष-कल्याना ।। ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय श्रावणशुक्लसप्तम्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
(कवित्त) पारसनाथ जिनेन्द्रतने वच पौनभखी' जरते सुन पाये। करो सरधान लह्यो पद आन भये पद्मावति-शेष' कहाये।। नाम प्रताप टरे सन्ताप सुभव्यन को शिव-शर्म दिखाये। हो अश्वसेन के नन्द भले गुण गावत हैं तुमरे हरषाये।।
भये जब अष्टम वर्ष कुमार, धरे अणुव्रत महा सुखकार । पिता जब आन करी अरदास, करो तुम ब्याह वरो मम आस ।। करी तब नाहिं रहे जगचन्द, किये तुम काम कषाय जु मन्द । चढ़े गजराज कुमारन संग, सु देखत गंगतनी सुतरंग ।। लख्यो इक रंक करे तप घोर, चहूँ दिस अगनि बले अतिजोर । कहे जिननाथ अरे सुन भ्रात, करे बहु जीवतनी मत घात ।। भयो तब कोप कहै कित जीव, जले तब नाग दिखाय सजीव । लख्यो यह कारण भावन भाय, नये दिव-ब्रह्म-ऋषी सुर आय ।। तबै सुर चार प्रकार नियोग, धरी शिविका निज-कन्ध मनोग। करयो बन माहिं निवास जिनन्द, धरे व्रत चारित आनन्द-कन्द ।। गहे तहाँ अष्टम के उपवास, गये धनदत्त तनें जु अवास । दियो पयदान महा सुखकार, भई पन वृष्टि तहाँ तिह वार ।। गये फिर कानन माहिं दयाल, धस्यो तुम योग सबै अघ टाल । तबै वह धूम सुकेत अयान, भयो कमठाचर को सुर आन ।। करै नभ गौन लखे तुम धीर, जु पूरब बैर विचार गहीर । करयो उपसर्ग भयानक घोर, चली बहु तीक्षण पवन झकोर ।। रह्यो दशहूँ दिश में तम छाय, लगी बहु अग्नि लखी नहिं जाय। सुरुण्डन के बिन मुण्ड दिखाय, पड़े जल मूसल धार अथाय ।। तबै पद्मावति कन्त धरणेन्द, चले जुग आय तहाँ जिनचन्द । भग्यो तब रंक सु देखत हाल, लह्यो तब केवलज्ञान विशाल ।। दियो उपदेश महाहितकार, सुभव्यन बोधि सम्मेद पधार । सुवर्णभद्र जहँ कूट प्रसिद्ध, वरी शिवनारि लही वसु ऋद्ध ।। जनूँ तुम चर्ण दोऊ कर जोर, प्रभू लखिये अब ही मम ओर। कहैं 'बखतावर' रतन बनाय, जिनेश हमें भव-पार लगाय ।।
(दोहा)
केकी-कण्ठ समान छबि, वपु उतंग नव हाथ । लक्षण उरग निहार पग, वन्दूँ पारसनाथ ।।
(मोतियादाम छन्द) रची नगरी षट् मास अगार, बने चहुँ गोपुर शोभ अपार । सु कोटतनी रचना छबि देत, कँगूरन पै लहकै बहु केत ।। बनारस की रचना जु अपार, करी बहु भाँत धनेश तैयार । तहाँ अश्वसेन नरेन्द्र उदार, करें सुख वाम सु दे पटनार ।। तज्यो तुम प्राणत नाम विमान, भये तिनके घर नन्दन आन । तबै सुर इन्द्र नियोगनि आय, गिरीन्द्र करी विधि न्होन सु जाय ।। पिता घर सौंप गये निज धाम, कुबेर करे वसु याम जु काम ।
बढ़े जिन दूज मयंक समान, रमैं बहु बालक निर्जर आन ।। १. नाग-नागिनी, २. धरणेन्द्र
जिनेन्द्र अर्चना
१. गगन जिनेन्द्र अर्चना/0001
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