Book Title: Jinendra Archana
Author(s): Akhil Bansal
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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देवांगना संग रमि रह्यो, जठै भोगनि को परिताप हो। प्रभु संग अप्सरा रमि रह्यो, कर-कर अति अनुराग हो।।म्हारी. ।। कबहुँक नंदनवन विर्षे प्रभु, कबहुँक वन गृह माहिं हो। प्रभु यह विधिकाल गमायकैं, फिर माला गई मुरझाय हो।।म्हारी. ।। देव थिती सब घट गई, फिर उपज्यो सोच अपार हो। सोच करत तन खिर पझ्यो, फिर उपज्यो गरभ मैं जाय हो।।म्हारी.।। प्रभु गर्भतणा दुःख अब कहूँ, जठै सकड़ाई की ठौर हो। हलन-चलन नहिं कर सक्यो, जठै सघन कीच घनघोर हो।।म्हारी. ।। माता खावै चरपरो, फिर लागै तन संताप हो। प्रभु ज्यों जननी तातो भखै, फिर उपजै तन संताप हो।।म्हारी. ।। औंधे मुख झुल्यो रह्यो, फेर निकसन कौन उपाय हो। कठिन-कठिनकर नींसर्यो, जैसे निसरै जंत्री में तार हो ।।म्हारी. ।। प्रभु फिर निक्सत ही धरत्याँ पझ्यो, फिर लागी भूख अपार हो। रोय रोय बिलख्यो घणो, दुख वेदन को नहिं पार हो।।म्हारी. ।। प्रभु दुख मेटन समरथ धनी, यार्ते लागूं तिहारे पाय हो। सेवक अरज करै प्रभू मोकूँ, भवदधि पार उतार हो ।।म्हारी. ।।
(दोहा) श्रीजी की महिमा अगम है, कोई न पावै पार ।
मैं मति अल्प अज्ञान हों, कौन करै विस्तार ।। ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालामहायं निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा) विनती ऋषभ जिनेश की, जो पढ़सी मनलाय । सुरगों में संशय नहीं, निहचै शिवपुर जाय ।। (पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्)
जिनेन्द्र अर्चना
श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजन (कविवर वृन्दावनदासजी कृत)
(छप्पय) चारुचरन आचरन, चरन चितहरनचिह्नचर, चन्दचन्दतनचरित, चंदथल चहत चतुर नर । चतुक चण्ड चकचूरि, चारि चिदचक्र गुनाकर, चंचल चलितसुरेश, चूलनुत चक्र धनुरधर ।। चर-अचर हितू तारनतरन, सुनत चहकि चिरनंद शुचि। जिनचंदचरन चरच्यो चहत, चितचकोर नचि रचि रुचि।।
(दोहा) धनुष डेढ़ सौ तुंग तन, महासेन नृपनन्द ।
मातु लछमना उर जये, थापों चन्दजिनन्द ।। ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् इति आह्वाननम् । ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः इति स्थापनम् ।। ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् इति सन्निधिकरणम् ।
(अवतार) गंगाह्रद निरमल नीर, हाटक ,गभरा, तुम चरन जजों वर वीर, मेटो जनम-जरा । श्रीचंदनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगे,
मन-वच-तन जजत अमंद, आतमजोति जगै। ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री खण्ड कपूर सुचंग, केशर रंगभरी।
घसि प्रासुक जल के संग, भव-आताप हरी ।।श्री. ।। ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
तन्दुल सित सोमसमान, सम ले अनियारे ।
दिये पुंज मनोहर आन, तुम पदतर प्यारे ।।श्री. ।। ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। जिनेन्द्र अर्चना/1000000000000000000000 जिनेन्द्र अर्चन
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