Book Title: Jinendra Archana
Author(s): Akhil Bansal
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 80
________________ सित तन द्युति नाकाधीश आप, सित शिवका काँधे धरि सुचाप। सित सुजस सुरेश नरेश सर्व, सित चित में चिन्तत जात पर्व ।। सित चन्द्रनगर” निकसि नाथ, सित वन में पहुँचे सकल साथ । सित सिला शिरोमणि स्वच्छ छाँह, सित तप तित धार्यो तुम जिनाँह ।। सित पय को पारण परमसार, सित चन्द्रदत्त दीनों उदार । सित कर में सो पयधार देत, मानो बाँधत भवसिंधु सेत ।। मानो सुपुण्यधारा प्रतच्छ, तित अचरज पनसुर किय ततच्छ । फिर जाय गहन सित तप करत, सित केवलज्योति जग्यो अनंत ।। लहि समवसरण रचना महान, जाके देखत सब पापहान । जहँ तरु अशोक शौभै उतंग, सब शोकतनो चूरै प्रसंग ।। सुर सुमनवृष्टि नभतें सुहात, मनु मन्मथ तज हथियार जात । बानी जिन मुखसों खिरत सार, मनु तत्त्व प्रकाशन मुकुरधार ।। जहँ चौसठ चमर अमर ढुरंत, मनु सुजस मेघ झरि लगिय तंत। सिंहासन है जहँ कमलजुक्त, मनु शिवसरवर को कमलशुक्त ।। दुंदुभि जित बाजत मधुर सार, मनु करमजीत को है नगार । सिर छत्र फिरै त्रय श्वेतवर्ण, मनु रतन तीन त्रयताप हर्ण ।। तन प्रभातनों मण्डल सुहात, भवि देखत निज भव सात सात । मनु दर्पणद्युति यह जगमगाय, भविजन भव मुख देखत सु आय।। इत्यादि विभूति अनेक जान, बाहिज दीसत महिमा महान । ताको वरणत नहिं लहत पार, तौ अंतरंग को कहै सार ।। अनअन्त गुणनिजुत करि विहार, धरमोपदेश दे भव्य तार । फिर जोगनिरोधि अघाति हान, सम्मेदथकी लिय मुकतिथान ।। 'वृन्दावन' वन्दत शीश नाय, तुम जानत हो मम उर जु भाय । ता” का कहों सु बार-बार, मनवांछित कारज सार-सार ।। १५८८000000 0000000जिनेन्द्र अर्चना जय चन्द जिनंदा आनंदकंदा, भवभय भंजन राजै हैं। रागादिक द्वन्दा हरि सब फन्दा, मुकति माहिं थिति साजै हैं।। ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जयमालापूर्णाय निर्वपामीति स्वाहा। (छन्द चौबोला) आठों दरव मिलाय गाय गुण, जो भविजन जिनचन्द जजैं। ताके भव-भव के अघ भाऊँ, मुक्त सारसुख ताहि सर्जें।। जमके त्रास मिटै सब ताके, सकल अमंगल दूर भ6। 'वृन्दावन' ऐसो लखि पूजत, जातै शिवपुर राज रजैं।। ____ पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् । चैतन्य वन्दना जिन्हें मोह भी जीत न पाये, वे परिणति को पावन करते। प्रिय के प्रिय होते हैं, हम उनका अभिनन्दन करते ।। जिस मंगल अभिराम भवन में, शाश्वत सुख का अनुभव होता। वन्दन उस चैतन्यराज को, जो भव-भव के दुःख हर लेता।।१।। जिसके अनुशासन में रहकर, परिणति अपने प्रिय को वरती। जिसे समर्पित होकर शाश्वत ध्रुव सत्ता का अनुभव करती।। जिसकी दिव्य ज्योति में चिर संचित अज्ञान-तिमिर घुल जाता। वन्दन उस चैतन्यराज को, जो भव-भव के दुःख हर लेता।।२।। जिस चैतन्य महा हिमगिरि से परिणति के घन टकराते हैं। शुद्ध अतीन्द्रिय आनन्द रस की, मूसलधारा बरसाते हैं।। जो अपने आश्रित परिणति को, रत्नत्रय की निधियाँ देता। वन्दन उस चैतन्यराज को, जो भव-भव के दुःख हर लेता ।।३।। जिसका चिन्तनमात्र असंख्य प्रदेशों को रोमांचित करता। मोह उदयवश जड़वत् परिणति में अद्भुत चेतन रस भरता ।। जिसकी ध्यान अग्नि में चिर संचित कर्मों का कल्मष जलता। वन्दन उस चैतन्यराज को, जो भव-भव के दुःख हर लेता।।४।। जिनेन्द्र अर्चना 000000 80

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