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अब तक अगणित जड़ द्रव्यों से, प्रभु! भूख न मेरी शान्त हुई। तृष्णा की खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही।। युग-युग से इच्छासागर में, प्रभु! गोते खाता आया हूँ।
चरणों में व्यंजन अर्पित कर, अनुपम रस पीने आया हैं। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। मेरे चैतन्य सदन में प्रभु! चिर व्याप्त भयंकर अँधियारा । श्रुत-दीप बुझा हे करुणानिधि! बीती नहिं कष्टों की कारा ।। अत एव प्रभो! यह ज्ञान-प्रतीक, समर्पित करने आया हूँ। तेरी अन्तर लौ से निज अन्तर-दीप जलाने आया हूँ। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
जड़ कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या भ्रान्ति रही मेरी। मैं रागी-द्वेषी हो लेता, जब परिणति होती जड़ केरी ।। यों भाव-करम या भाव-मरण, सदियों से करता आया हूँ। निज अनुपम गंध-अनल से प्रभु, पर-गंध जलाने आया हैं।। ॐ ह्रीं श्री देव-शाख-गुरुभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। जग में जिसको निज कहता मैं, वह छोड़ मुझे चल देता है। मैं आकुल-व्याकुल हो लेता, व्याकुल का फल व्याकुलता है।। मैं शान्त निराकुल चेतन हूँ, है मुक्ति-रमा सहचर मेरी। यह मोह तड़क कर टूट पड़े, प्रभु! सार्थक फल पूजा तेरी ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। क्षण भर निज-रस को पी चेतन, मिथ्या-मल को धो देता है। काषायिक भाव विनष्ट किये, निज आनन्द-अमृत पीता है।। अनुपम सुख तब विलसित होता, केवल-रवि जगमग करता है। दर्शन बल पूर्ण प्रकट होता, यह ही अरहन्त अवस्था है।। यह अर्घ्य समर्पण करके प्रभु! निज गुण का अर्घ्य बनाऊँगा।
और निश्चित तेरे सदृश प्रभु! अरहन्त अवस्था पाऊँगा।। ___ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा। * मूल छन्द में लेखक द्वारा परिवर्तन किया गया है। देखें पृष्ठ-३० पर
1000000 जिनेन्द्र अर्चना
जयमाला
(ताटक) भव वन में जी भर घूम चुका, कण-कण को जी भर-भर देखा। मृग-सम मृग-तृष्णा के पीछे, मुझको न मिली सुख की रेखा ।।
(बारह भावना) झूठे जग के सपने सारे, झूठी मन की सब आशायें । तन-जीवन-यौवन अस्थिर है, क्षण-भंगुर पल में मुरझायें।। सम्राट महाबल सेनानी, उस क्षण को टाल सकेगा क्या? अशरण मृत-काया में हर्षित, निज जीवन डाल सकेगा क्या? संसार महादुखसागर के, प्रभु दुखमय सुख-आभासों में। मुझको न मिला सुख क्षण भर भी, कंचन-कामिनी प्रासादों में।। मैं एकाकी एकत्व लिये, एकत्व लिये सब ही आते । तन-धन को साथी समझा था, पर ये भी छोड़ चले जाते।। मेरे न हुए ये, मैं इनसे, अति भिन्न अखण्ड निराला हूँ।। निज में पर से अन्यत्व लिये, निज समरस पीनेवाला हूँ। जिसके शृंगारों में मेरा, यह महँगा जीवन घुल जाता। अत्यन्त अशुचि जड़-काया से, इस चेतन का कैसा नाता ।। दिन-रात शुभाशुभ भावों से, मेरा व्यापार चला करता। मानस, वाणी और काया से, आस्रव का द्वार खुला रहता।। शुभ और अशुभ की ज्वाला से, झुलसा है मेरा अन्तस्तल। शीतल समकित किरणें फूटें, संवर से जागे अन्तर्बल ।। फिर तप की शोधक वह्नि जगे, कर्मों की कड़ियाँ टूट पड़ें। सर्वांग निजात्म प्रदेशों से, अमृत के निर्झर फूट पड़ें ।। हम छोड़ चलें यह लोक तभी, लोकान्त विराजें क्षण में जा। निज लोक हमारा वासा हो, शोकांत बने फिर हमको क्या ।। जागे मम दुर्लभ बोधि प्रभो! दुर्नय-तम सत्वर टल जाये। बस ज्ञाता-द्रष्टा रह जाऊँ, मद-मत्सर-मोह विनश जाये।। चिर रक्षक धर्म हमारा हो, हो धर्म हमारा चिर साथी।
जग में न हमारा कोई था, हम भी न रहें जग के साथी ।। जिनेन्द्र अर्चना 10000
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