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जय विमल विमल-पद देनहार, जय जय अनन्त गुन-गण अपार । जय धर्म धर्म शिव-शर्म देत, जय शान्ति शान्ति पुष्टी करेत ।। जय कुन्थु कुन्थुवादिक रखेय, जय अरजिन वसु-अरि छय करेय। जय मल्लि मल्ल हत मोह-मल्ल, जय मुनिसुव्रत व्रत-शल्ल-दल्ल।। जय नमि नित वासव-नुत सपेम, जय नेमिनाथ वृष-चक्र नेम। जय पारसनाथ अनाथ-नाथ, जय वर्द्धमान शिव-नगर साथ ।।
(त्रिभंगी) चौबीस जिनन्दा, आनन्द-कन्दा, पाप-निकन्दा, सुखकारी।
तिन पद-जुग-चन्दा, उदय अमन्दा, वासव-वन्दा, हितकारी।। ॐ ह्रीं श्री वृषभादिमहावीरान्तचतुर्विंशतिजिनेभ्यो अनयंपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा।
(सोरठा) भुक्ति-मुक्ति दातार, चौबीसों जिनराजवर । तिन-पद मन-वच-धार, जो पूजै सो शिव लहै।।
(पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् )
करलो जिनवर का गुणगान करलो जिनवर का गुणगान, आई मंगल घड़ी। आई मंगल घड़ी, देखो मंगल घड़ी ।।करलो ।।१।। वीतराग का दर्शन पूजन भव-भव को सुखकारी। जिन प्रतिमा की प्यारी छविलख मैं जाऊँ बलिहारी । करलो।।२।। तीर्थंकर सर्वज्ञ हितंकर महा मोक्ष के दाता। जो भी शरण आपकी आता, तुम सम ही बन जाता । करलो।।३।। प्रभु दर्शन से आर्त रौद्र परिणाम नाश हो जाते। धर्म ध्यान में मन लगता है, शुक्ल ध्यान भी पाते।।करलो।।४।। सम्बकदर्शन हो जाता है मिथ्यातम मिट जाता। रत्नत्रय की दिव्य शक्ति से कर्म नाश हो जाता । करलो ।।५।। निज स्वरूप का दर्शन होता, निज की महिमा आती। निज स्वभाव साधन के द्वारा स्वगति तुरत मिल जाती । कालो।।६।।
सीमन्धर जिनपूजन (डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल कृत)
(कुण्डलिया) भव-समुद्र सीमित कियो, सीमन्धर भगवान ।
कर सीमित निजज्ञान को, प्रकट्यो पूरण ज्ञान ।। प्रकट्यो पूरण ज्ञान-वीर्य-दर्शन सुखधारी, समयसार अविकार विमल चैतन्य-विहारी । अंतर्बल से किया प्रबल रिपु-मोह पराभव,
अरे भवान्तक! करो अभय हर लो मेरा भव ।। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिन! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम् । ॐहीं श्री सीमंधरजिन! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिन! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्, सन्निधिकरणम्।
प्रभुवर! तुम जल-से शीतल हो, जल-से निर्मल अविकारी हो। मिथ्यामल धोने को जिनवर, तुम ही तो मलपरिहारी हो।। तुम सम्यग्ज्ञान जलोदधि हो, जलधर अमृत बरसाते हो। भविजन मन मीन प्राणदायक, भविजन मन-जलज खिलाते हो।। हे ज्ञान पयोनिधि सीमन्धर! यह ज्ञान प्रतीक समर्पित है। हो शान्त ज्ञेयनिष्ठा मेरी, जल से चरणाम्बुज चर्चित है।। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन-सम चन्द्रवदन जिनवर, तुम चन्द्रकिरण-से सुखकर हो। भव-ताप निकंदन हे प्रभुवर! सचमुच तुम ही भव-दुख-हर हो।। जल रहा हमारा अन्तःस्तल, प्रभु इच्छाओं की ज्वाला से। यह शान्त न होगा हे जिनवर रे! विषयों की मधुशाला से। चिर-अंतर्दाह मिटाने को, तुम ही मलयागिरि चंदन हो।
चंदन से चरचूँ चरणांबुज, भव-तप-हर! शत-शत वंदन हो।। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु! अक्षतपुर के वासी हो, मैं भी तेरा विश्वासी हूँ।
क्षत-विक्षत में विश्वास नहीं, तेरे पद का प्रत्याशी हूँ।। जिनेन्द्र अर्चना
MITR१२३
20201000
0000000000000000000जिनेन्द्र अर्चना