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अब तक अगणित जड़ द्रव्यों से, प्रभु भूख न मेरी शांति हुई । तृष्णा की खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही ।। युग-युग से इच्छा - सागर में, प्रभु! गोते खाता आया हूँ । पंचेन्द्रिय मन के षट्स तज, अनुपम रस पीने आया हूँ ।।
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जग के जड़ दीपक को अब तक, समझा था मैंने उजियारा । झँझा के एक झकोरे में, जो बनता घोर तिमिर कारा ।। * अत एव प्रभो ! यह ज्ञान -प्रतीक, समर्पित करने आया हूँ। तेरी अन्तर लौ से निज अन्तर दीप जलाने आया हूँ ।। डॉ. भारिल्ल की पूजनों में यह ध्वनि लगभग सर्वत्र ही सुनाई देती है। सिद्ध पूजन के अर्घ्य के छन्द में यह बात सटीक रूप में व्यक्त हुई है :
जल पिया और चन्दन चरचा, मालायें सुरभित सुमनों की । पहनीं, तन्दुल सेये व्यंजन, दीपावलियाँ की रत्नों की ।। सुरभी धूपायन की फैली, शुभ कर्मों का सब फल पाया। आकुलता फिर भी बनी रही, क्या कारण जान नहीं पाया ।। जब दृष्टि पड़ी प्रभुजी तुम पर, मुझको स्वभाव का भान हुआ । सुख नहीं विषय-भोगों में है, तुमको लख यह सद्ज्ञान हुआ ।। जल से फल तक का वैभव यह, मैं आज त्यागने हूँ आया ।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ।। पूजन पढ़ते समय जब तक उसका भाव पूरी तरह ध्यान में न आये, तब तक उसमें जैसा मन लगना चाहिए, वैसा लगता नहीं है। इसके लिए आवश्यक यह है कि पूजन साहित्य सरल और सुबोध भाषा में लिखा जाये । यद्यपि प्राचीन पूजनें अपने युग की अत्यन्त सरल एवं सुबोध ही हैं, तथापि काल परिवर्तन के प्रवाह से उनकी भाषा वर्तमान युग के पाठकों को सहज ग्राह्य नहीं रही है। ऐसी स्थिति में आवश्यकता इस बात की है कि अधिक से अधिक
* लेखक द्वारा उक्त छन्द में परिवर्तन कर निम्नप्रकार कर दिया गया है।
मेरे चैतन्य सदन में प्रभु चिर व्याप्त भयंकर अँधियारा । श्रुत-दीप बुझा हे करुणानिधि! बीती नहिं कष्टों की कारा ।।
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जिनेन्द्र अर्चना
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पूजनें आज की सरल-सुबोध भाषा में भी लिखी जायें और उनका भी प्रचारप्रसार हो; साथ ही यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि नये और सरल-सुबोध के व्यामोह में हम अपनी पुरातन निधि को भी न बिसर जायें। आवश्यकता समुचित सन्तुलन की है। न तो हम प्राचीनता के व्यामोह में विकास को अवरुद्ध करें और न ही सरलता के व्यामोह में पुरातन को विस्मृति के गर्त में डाल दें। नई पूजनें बनाने के व्यामोह में आगम-विरुद्ध रचना न हो जाये - इसका भी ध्यान रखना अत्यावश्यक है।
प्राचीन इतिहास सुरक्षित रखने के साथ-साथ हर युग में नया इतिहास भी बनना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि भविष्य के लोग कहें कि इस युग में ऐसे भक्त ही नहीं थे, जो पूजनें लिखते । नवनिर्माण की दृष्टि से भी युग को समृद्ध होना चाहिए और प्राचीनता को सँजोने में भी पीछे नहीं रहना चाहिए।
प्राचीन भक्ति साहित्य में समागत कुछ कथनों पर आज बहुत नाक-भौंह सिकोड़ी जाती है। कहा जाता है कि उस पर कर्तावाद का असर है; क्योंकि उसमें भगवान को दीन-दयाल, अधम-उधारक, पतित-पावन आदि कहा गया है। भगवान से पार लगाने की प्रार्थनायें भी कम नहीं की गई हैं; पर ये सब व्यवहार के कथन हैं। व्यवहार से इसप्रकार के कथन जिनागम में भी पाये जाते हैं; पर उन्हें औपचारिक कथन ही समझना चाहिए ।
मूलाचार के पाँचवें अधिकार की १३७वें गाथा में ऐसे कथनों को असत्यमृषा भाषा के प्रभेदों में याचिनी भाषा बतलाया है। जिस भाषा के द्वारा किसी से याचना- प्रार्थना की जाती है। जो न सत्य हो और न झूठ हो ।' पाँचवें अधिक की १२९वीं गाथा के अर्थ में भाषा समिति के रूप में भी यही बताया है।' इससे ये कथन निर्दोष ही सिद्ध होते हैं।
उक्त सन्दर्भ में पण्डित टोडरमलजी का निम्नांकित कथन भी द्रष्टव्य है - " तथा उन अरहन्तों को स्वर्ग-मोक्षदाता, दीनदयाल, अधम-उधारक,
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२. मूलाचार, पृष्ठ १८६
जिनेन्द्र अर्चना
मूलाचार, पृष्ठ १८९ ( शास्त्रागार प्रति, शोलापुर)
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