________________
उनतिस अंग की आरती',सुनो भविक चित लाय। मन-वच-तन सरधा करो, उत्तम नरभव पाय ।।' --
-- यह क्षमावाणी 'आरती', पढ़े-सुनै जो कोय । कहै 'मल्ल' सरधा करो, मुक्ति श्रीफल होय ।।'
किन्तु आज जब जिनालयों में प्रकाश की पर्याप्त व्यवस्था है तो फिर दीपक की आवश्यकता नहीं रह जाती, तथापि या तो हमारी पुरानी आदत के कारण या फिर अनभिज्ञता के कारण आज अनावश्यक रूप से अखण्ड दीप जल रहा है तथा आरती का भी दीपक अभिन्न अंग बन बैठा है - इस कारण अब बिना दीपक के आरती आरती-सी ही नहीं लगती।
अतः आज के संदर्भ में दीपक व आरती का यथार्थ अभिप्राय व प्रयोजन जानकर प्रचलित प्रथा को सही दिशा देने का प्रयास करना चाहिए।
-
-
--
-
-
जग आरत भारत महा, गारत करि जय पाय । विजय 'आरती' तिन कहूँ, पुरुषारथ गुण गाय ।।'
--
-
-
मंगलमय तुम हो सदा, श्री सन्मति सुखदाय ।
चाँदनपुर महावीर की, कहूँ 'आरती' गाय ।।' इसप्रकार पूजन साहित्य में आये उपर्युक्त कथनों से स्पष्ट है कि 'आरती' शब्द का अर्थ केवल स्तुति (गुणगान) करना है, अन्य कुछ नहीं । तथा उक्त सभी कथनों में - 'आरती' को पढ़ने, सुनने या कहने की ही बात कही गई है, इससे भी यही सिद्ध होता है कि 'आरती' पढ़ने, सुनने या कहने की ही वस्तु है. क्रियारूप में कुछ करने की वस्तु नहीं। ___ वैसे तो दीपक से आरती का दूर का भी सम्बन्ध नहीं है, परन्तु प्राचीनकाल में जिनालयों में न तो कोई बड़ी खिड़कियाँ होती थीं और न ऐसे रोशनदान ही, जिनसे पर्याप्त प्रकाश अन्दर आ सके। दरवाजे भी बहुत छोटे बनते थे तथा बिजली तो थी ही नहीं। इसकारण उन दिनों प्रकाश के लिए जिनालयों में दिन में भी दीपक जलाना अति आवश्यक था। तथा भले प्रकार दर्शन के लिए दीपक को हाथ में लेकर प्रतिमा के अंगोपांगों के निकट ले जाना भी जरूरी था क्योंकि दूर रखे दीपक के टिमटिमाते प्रकाश में प्रतिमा के दर्शन होना संभव नहीं था। १. सम्यग्दर्शन के ८, सम्यग्ज्ञान के ८ व सम्यक्चारित्र के १३ : कुल २९ अंग हुए। २. कविवर मल्ल, क्षमावाणी पूजन : जयमाला का प्रथम छन्द । ३. कविवर मल्ल, क्षमावाणी पूजन : जयमाला का अन्तिम छन्द। ४. संत कवि : सिद्धचक्र विधान : प्रथम पूजन, जयमाला। ५. चाँदनपुर महावीर पूजन : कवि पूरनमल जैन।
जिनेन्द्र अर्चना
मनोरथ पूर्ति यह बात जुदी है कि पंचपरमेष्ठी के निष्काम उपासकों को भी सातिशय पुण्यबंध होने से लौकिक अनुकूलतायें भी स्वतः मिलती देखी जाती हैं तथा वे उन अनुकूलताओं एवं सुख-सुविधाओं को स्वीकार करते हुए, उनका उपभोग करते हुए भी देखे जाते हैं; किन्तु सहज प्राप्त उपलब्धियों को स्वीकार करना अलग बात है
और उनकी कामना करना अलग बात । दोनों में जमीन-आसमान का अन्तर है।
आतिथ्य-सत्कार में नाना मिष्ठान्नों का प्राप्त होना और उन्हें सहज स्वीकार कर लेना जुदी बात है और उनकी याचना करना जुदी बात है। दोनों को एक नजर से नहीं देखा जा सकता। ज्ञानी अपनी वर्तमान पुरुषार्थ की कमी के कारण पुण्योदय से प्राप्त अनुकूलता के साथ समझौता तो सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं, किन्तु वे पुण्य के फल की भीख भगवान से नहीं माँगते।
- णमोकार महामंत्र, पृष्ठ ७४
जिनेन्द्र अर्चना200000