Book Title: Jina Sutra Part 1
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 16
________________ जिन सूत्र भागः pron महावीर की सारी चेष्टा ऐसी है जैसे गंगा गंगोत्री की तरफ | मालूम होंगे। घबड़ाना मत। श्रवण और ब्राह्मण मिलकर ही पूर्ण बहे-मूलस्रोत की तरफ, उत्स की तरफ। लड़ो! दुस्साहस | संस्कृति का जन्म होता है। नहीं हो पाया ऐसा, होना चाहिए था। करो-संघर्ष, समर्पण नहीं। महान संघर्ष से गुजरना होगा, अब भी कुछ देर नहीं हुई, हो सकता है। जहां नारद और क्योंकि धारा को उलटा ले जाना है, विपरीत ले जाना है। वर्द्धमान महावीर राजी हो जाते हैं, वहां पूर्ण वर्तुल पैदा होता है। धारा का अर्थ है : जाए गंगोत्री से गंगा सागर की तरफ। धारा पर महावीर की भाषा संघर्ष की है। महावीर के पास को उलटा करना है-राधा बनाना है। गंगा चले, बहे उलटी, शरणागति जैसा कोई शब्द ही नहीं है। महावीर कहते हैं, ऊपर की तरफ, पानी पहाड़ चढ़े। मूल उदगम की खोज हो। अशरण-भावना। किसी की शरण मत जाना। अपनी ही शरण ब्राह्मण-संस्कृति आधी है। श्रमण-संस्कृति भी आधी है। लौटना है। घर जाना है। किसी का सहारा मत पकड़ना। सहारे दोनों से मिलकर पूरा वर्तुल निर्मित होता है। और इसलिए इस | से तो दूसरा हो जाएगा। सहारे में तो दूसरा महत्वपूर्ण हो देश में ब्राह्मण और श्रमणों के बीच जो संघर्ष चला, उसने दोनों जाएगा। नहीं, दूसरे को तो त्यागना है, छोड़ना है, भूलना है। को पंगु किया। तब ब्राह्मणों के पास फैलने के सूत्र रह गए, | बस एक ही याद रह जाए, जो अपना स्वभाव है, जो अपना श्रमणों के पास सिकुड़ने के सूत्र रह गए। दोनों ही अधूरे हो गए; | स्वरूप है-इसलिए कोई शरणागति नहीं। सत्य आधा-आधा कट गया। मेरे देखे, जहां ब्राह्मण और श्रमण महावीर गुरु नहीं हैं। महावीर कल्याणमित्र हैं। वे कहते हैं, मैं राजी होते हैं, सहमत होते हैं, मिल जाते हैं, वहीं परिपूर्ण धर्म का कुछ कहता हूं, उसे समझ लो; मेरे सहारे लेने की जरूरत नहीं आविर्भाव होता है। | है। मेरी शरण आने से तुम मुक्त न हो जाओगे। मेरी शरण आने निश्चित ही परमात्मा थक गया अकेलेपन से, बहुत रूप उसने से तो नया बंधन निर्मित होगा, क्योंकि दो बने रहेंगे। भक्त और धरे; लेकिन फिर बहुत रूप से भी तो थकेगा, फिर विश्राम भी तो भगवान बना रहेगा। शिष्य और गुरु बना रहेगा। नहीं, दो को तो मांगेगा। इसलिए महावीर के वचन वेद-विरोधी मालूम होंगे; मिटाना है। क्योंकि वेद बह रहा है गंगोत्री से गंगासागर की तरफ। इसलिए इसलिए महावीर ने भगवान शब्द का उपयोग ही नहीं किया। हिंदुओं ने समझा कि महावीर वेद-विरोधी हैं-प्रतीत होते हैं। कहा कि भक्त ही भगवान हो जाता है। | परमात्मा अपने घर वापिस लौटने लगा। ऊब गया बाजार से, इसे समझना। विपरीत दिखाई पड़ते हुए भी ये बातें विपरीत देख ली भीड़-भाड़, बहुत रूप धर लिये, थक गया उनसे भी। नहीं हैं। उसने फिर कहा, अब हो गया बहुत अनेक, अब एक होना। नारद कहते हैं, भक्त भगवान में लीन हो जाता है। भगवान ही चाहता हूं। इसलिए महावीर के पास एक शब्द है जो बड़ा बचता है, भक्त खो जाता है। महावीर कहते हैं, भक्त जाग जाता बहुमूल्य है। महावीर ने कहा, मनुष्य बहुचित्तवान है; है अपनी परिपूर्णता में, भगवान खो जाता है, भक्त में लीन हो बहुत-बहुत खंडों में विभाजित है—उसे एक होना है। बहुत जाता है। भक्त ने पहचान लिया अपना स्वरूप-भगवान हो रूपों में बंटा है-उसे संगृहीत होना है। इस संगृहीत चैतन्य का गया। स्वरूप को पहचान लेना भगवत्ता है। इसलिए महावीर के नाम ही महावीर की भाषा में परमात्मा है। वर्द्धमान को महावीर धर्म में भगवान नहीं है, शरणागति नहीं है। शरण जाने को ही होना है। फैलते को वापिस लौटना है, क्योंकि सब फैलाव | कोई नहीं है, जिसकी शरण चले जाओ। कोई प्रार्थना नहीं, कोई कामना का है। परमात्मा भी फैला संसार में कामना से। कामना | पूजा नहीं-हो नहीं सकती; क्योंकि पूजा में तो दूसरा जरूरी ही फैलती है। तो जिसे मुक्त होना है, उसे सिकुड़ना होगा। उसे | होगा। 'पर' चाहिए पूजा को। मूल स्वभाव में लौट आना होगा। महावीर की भाषा ध्यान की है, पूजा की नहीं। और ध्यान और परमात्मा उतरा है, हिंदु विचार में-अवतरण हआ। महावीर प्रार्थना में यही फर्क है। प्रार्थना में दूसरा चाहिए। ध्यान में दूसरे कहते हैं, ऊर्ध्वगमन, वापिस लौटना है घर; देख लिया संसार! को मिटाना है, भुलाना है। इस तरह भुला देना है कि बस अकेले इसलिए महावीर के सूत्र भक्ति-सूत्र से बिलकुल विपरीत तुम ही बचो, शुद्ध चैतन्य बचे; दूसरे की रेखा भी न रहे, छाया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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