Book Title: Jainpad Sangraha 03
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 12
________________ जैन पदसंग्रह कको, शोकावलि भाजै हो । वानी वरसै अमृत सी, जलधर ज्यों गाजै हो ॥ वा पुर० ॥४॥ वरसैं सुमनसुहावनैं, सुरदुंदभि गाजै हो । प्रभु तन तेजसमूहसौं, ससि सूरज लाजै हो ॥ वा पुर० ॥ ५ ॥ समोसरन विधि वरनतें, बुधि वरन न पावै हो । सब लोकोत्तर लच्छमी, देखें वनि आवै हो ॥ वा पुर० ॥६॥ सुरनर मिलि आवें सदा, सेवा अनुरागी हो । प्रकट निहारें नाथकों, धनि वे बड़भागी हो । वा पुर०॥७॥ भूधर विधिसौं भावसौं, दीनी त्रय फेरी हो । जैवन्ती वरतो सदा, नगरी जिनकेरी हो॥ वा पुर०॥८॥ ५. राग सोरठ। अज्ञानी पाप धतूरा न बोय ॥ टेक ॥ फल. चाखनकी बार भरै दृग, ·मर है मूरख रोय ॥ अज्ञानी० ॥ १ ॥ किंचित् विषयनिके सुख गरण, दुर्लभ देह न खोय । ऐसा अवसर फिर मिलैगा, इस नींदड़ी न सोय ॥ अज्ञानी०॥ १ समुद्र । २ पुष्प । ३ चन्द्र ।

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