Book Title: Jainpad Sangraha 03
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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तृवीयभाग।
४१ ५९. राग बिहाग । तहां ले चल री! जहां जादौपति प्यारो ।। टेक । नेमि निशाकर विन यह चन्दा, तन मन दहत सकल री । तहां० ॥ १ ॥ किरन किधौं नाविक-शर-तति कै. ज्यों पावककी झलरी । तारे हैं कि अँगारे सजनी, रजनी राकसदल री। तहां०॥२॥ इह विधि राजुल राजकुमारी, विरह तपी वेकल री । भूधर धन्न शिवासुत बादर, वरसायो समजल री । तहां ॥३॥
६०. राग ख्याल । - अरे! हां चेतो रे भाई ॥ टेक ॥ मानुष देह लही दुलही, सुघरी उपरी सतसंगति पाई । अरे हा०॥१॥ जे करनी वरनी करनी नहि, ते समझी करनी समझाई। अरे हां० ॥२॥ यों शुभ थान जग्यो उर ज्ञान, विषैविषपान तृषा न वुझाई । अरे हां०॥ ३ ॥ पारस पाय सुधा
१ राक्षस । २ शिवाटेवीके पुत्र नेमि । ३ बाउल मेघ । ४ शमसमतारूपी जल । ५ टेक छोड़कर पढ़नसे इस पटका एक मत्तगयन्द (तेईसा) सबैया बन जाता है।

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