Book Title: Jainpad Sangraha 03
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 67
________________ तृतीयभाग। वन तन रोगी जी, के विरहवियोगी जी। फिर भोगी वहुविधि, विरघपनाकी वेदना जी ॥१०॥ सुरपदवी पाई जी, रंभा उर लाई जी । तहाँ देखि पराई, संपति झूरियो जी ॥ ११ ॥ माला मुरझानी जी, तब आरति ठानी जी । तिथि पूरन जानी, मरत विसूरियों जी ॥ १२ ॥ यों दुख भवकेरा जी, भुगतो वहुतेरा जी । प्रभु! मेरे कहते, पार न है कहीं जी ॥ १३ ॥ मिथ्यामदमाता जी, चाही नित साता जी । सुखदाता जगत्राता, तुम जाने नहीं जी ॥ १४ ॥ प्रभु भागनि पाये जी, गुन श्रवन सुहाये जी । तकि आयो अव सेवककी, विपदा हरो जी ॥ १५॥ भववास वसेरा जी, फिरि होय न मेरा जी । सुख पावै जन तेरा, स्वामी! सो करो जी ॥ १६ ॥ तुम शरनसहाई जी, तुम सज्जनभाई जी । तुम माई तुम्ही वाप, दया मुझ लीजिये जी॥ १७ ॥ भूधर कर जौरे जी, ठाडो प्रभु औरै जी । निजदास निहारो, निरभय कीजिये जी ॥ १८॥

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