Book Title: Jainpad Sangraha 03
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 69
________________ तृतीयभाग। दोइ, पायनि वेरी डारी । तन काराग्रहमाहि, मोहि दियो दुख भारी ॥ ९॥ इनको नेक विगार, मैं कछु नाहि कियो जी । विनकारन जगवंद्य !, बहुविधि वैर लियो जी ॥ १० ॥ अव आयो तुम पास, सुनि जिन : सुजस तिहारो। नीतनिपुन जगराय !, कांजे न्याव हमारो॥१॥ दुष्टन देहु निकास, साधुनकों रखि लीजे । विनवै. भूधरदास, हे प्रभु ! ढील न कीजे ॥ १२॥ ७७. गुरुकी विनती। (गग-भरतर्ग ! दोहा।) ते गुरु मेरे मन वसो. जे भव जलधि जिहाज । आप तिरै पर तारहीं, ऐसे श्रीऋषि-- राज ॥ ते गुरु० ॥१॥ मोह महारिपु जीतिक, छांड्यो सब घरवार । होय दिगम्बर वन वसे, आतम शुद्ध विचार ॥ ते गुरु० ॥२॥ रोगउरग-विल वपु गिण्यो, भोग भुजंग समान । कदली तरु संसार है, त्यागो सव यह जान ॥ ते गुरु०॥३॥ रतनत्रय निधि उर धरै, अरू१ रोगन्पी सर्पका बिल । २ शरीर।

Loading...

Page Navigation
1 ... 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77