Book Title: Jainpad Sangraha 03
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 75
________________ तृतीयभाग । ७९. करुणाष्टक | करुणा ल्यो जिनराज हमारी, करुणां ल्यो ॥ टेक ॥ अहो जगतगुरु जगपती, परमानंदनिधान । किंकरपर कीजे दया, दीजे अविचल थान ॥ हमारी० ॥ १ ॥ भवदुखसों भयभीत हौं, शिवपदवांछा सार । करो दया मुझ दीनपै, भवबंधन निरवार | हमारी० ॥ २ ॥ पस्यो विषम भवकूपमें, हे प्रभु ! काड़ो मोहि । पतितउधारण हो तुम्हीं, फिर फिर विनऊं तोहि || हमारी० || ३ || तुम प्रभु परमदयाल हो, अशरणके आधार । मोहि दुष्ट दुख देत हैं, तुमसों करहुँ पुकार ॥ हमारी० ॥४॥ दुःखित देखि दया करै, गाँवपती इक होय । तुम त्रिभुवनपति कर्मतें, क्यों न छुड़ावो मोय || हमारी० ॥ ५ ॥ भव- आताप तवै भुजैं, जव राखों उर धोय । दया-सुधा करि सीयरा, तुम पदपंकज दोय || हमारी० ॥ ६ ॥ येहि एक मुझ वीनती, स्वामी ! हर संसार | बहुत धज्यो हू त्रासतें, विलख्यो वारंवार ॥ हमारी० ॥ ७ ॥ पेदमनंदिको १ श्रीपद्मनन्दि आचार्यकृत पचविशतिकाके करुणाष्टक्का आशय लेकर । ६७ "

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