Book Title: Jainpad Sangraha 03
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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१
तृतीयभाग जीते, टेव मरनकी टारी । हमहूको अजरामर करियो, भरियो आस हमारी ॥ स्वामी० ॥२॥ जनमैं मरै धरै तन फिरि फिरि, सो साहिव संसारी । भूधर परदालिद क्यों दलि है, जो है आप भिखारी ॥ स्वामी ॥३॥
जीवदया व्रत तरु वड़ो, पालो पालो वड़भाग ॥ टेक ॥ कीड़ी कुंजर कुंथुवा, जेते जगजन्त । आप सरीखे देखिये, करिये नहिं भन्तं ॥ जीवदया० ॥१॥ जैसे अपने हीयडे, प्यारे निज प्रान । त्सों सवहीको लाड़िये, निहचै यह जान ॥ जीवदया० ॥२॥ फांस चुभै टुक देहमें, कछु नाहिँ सुहाय । सों परदुखकी वेदना, समझो मन लाय ॥ जीवदया० ॥३॥ मन वचसौं अर कायसौं, करिये परकाज । किसहीकों न सताइये, सिख रिखिराज ॥ जीवदया० ॥ ४॥ करुना जगकी मायडी, धीजै सव कोय । धिग! धिग! निरदय भावना, करें १ भेद । २ दिलमें । ३ माता । ५ प्रतीति करें।

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