Book Title: Jainpad Sangraha 03
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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जैन पदसंग्रहजिय जोय ॥ जीवदया० ॥ ५॥ सब दसण सव लोयमें, सब कालमँझार । यह करनी बहु शंसिये, ऐसो गुणसार ॥ जीवदया ॥६॥ निरदै नर भी संस्तुवै, निंदै कोइ नाहि । पालैं विरले साहसी, धनि वे जगमाहिं ॥ जीवदया ॥७॥ पर सुखसौं सुख होय, पर-पीड़ासौं पीर । भूधर जो चित चाहिये, सोई कर बीर! ।। जीवदया० ॥८॥
ऐसो श्रावक कुल तुम पाय, वृथा क्यों खोवत हो ॥ टेक ॥ कठिन कठिनकर नरभव पाई, तुम लेखी आसान । धर्म विसारि विषयमें राचौ, मानी न गुरुकी आन || वृथाः ॥ १॥ चक्री एक मतंगज पायो, तापर ईंधन ढोयो । विना विवेक विना मतिहीको, पाय सुधा पग धोयो ।। वृथा० ॥ २ ॥ काहू शठ चिन्तामणि पायो, मरम न जानो ताय । वायस देखि उदधिमें फैंक्यो, फिर पीछे पछताय ।। वृथा ॥३॥ १ दर्शनोंमें-धर्मोमें । २ लोकमें । ३ सराहिए । ४ स्तुति करे ।

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