Book Title: Jainpad Sangraha 03
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 57
________________ तृतीयभाग। चित्त हरै जी ॥ २ ॥ सिखयो है साथीन म्हारी केती वार, क्यों ही कियो हठी हठ एरी हरै जी । कीजे हो साथनि म्हारी कौन उपाय, अव यह विरह विथा नहिं सही परै जी ॥३॥ चलि चलि री साथीन म्हारी, जिनजीके पास, वे उपगारी इसे समझावसी जी । जगसी हे सखी म्हारे मस्तक भाग, जो म्हारौ कंथ समझि घर आवसी जी॥४॥ कारज हे सखी म्हारी ! सिद्ध न होय, जव लग काललवधिवल नहिं भलो जी । तो पण हे सखी म्हारी उद्यम जोग, सीख सयानी भूधर मन सांभलो जी ॥५॥ ७०.जकड़ी। - अब मन मेरे वे !, सुनि सुनि सीख सयानी। जिनवर चरना वे !, करि करि प्रीति सुज्ञानी । करि प्रीति सुज्ञानी ! शिवसुखदानी, धन जीतव है पंचदिना । कोटि वरष जीवौ किस लेखे, जिन चरणांबुजभक्ति विना ॥ नर परजाय पाय अति उत्तम, गृह वसि यह लाहा ले रे !। समझ समझ ४ भाग ३

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