Book Title: Jainpad Sangraha 03
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 62
________________ जैन पदसंग्रहचौवीस तीर्थंकर सुजिनको, नमत सुरनर आयके । मैं शरण आयो हर्ष पायो, जोर कर सिर नायके ॥ तुम तरनतारन हो प्रभूजी, मोहि पार उतारियो । मैं हीन दीन दयालु प्रभुजी, काज मेरो सारियो ॥ ६॥ यह अतुलमहिमासिन्धु साहब, शक पार न पावही । तजि हासभयः तुम दास भूधर, भक्तिवश यश गावही ॥ ७॥ __७३, गुरुविनती। बन्दौं दिगम्बरगुरुचरन, जग तरन तारन जान । जे भरम भारी रोगको, हैं राजवैद्य महान ॥ जिनके अनुग्रह विन कभी, नहिं करें कर्म जंजीर । ते साधु मेरे मन वसो, मेरी हरो पातक पीर ॥ १ ॥ यह तन अपावन अशुचि है, संसार सकल असार । ये भोग विष पकवानसे, इस भाँति सोच विचार ॥ तप विरचि श्रीमुनि वन वसे, सब त्यागि परिग्रह भीर । ते साधु मेरे मन वसो, मेरी हरो पातक पीर ॥२॥ जे काच कंचन सम गिनें, अरि मित्र एक सरूप ।

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