Book Title: Jainpad Sangraha 03
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 20
________________ जैन पदसंग्रहविरह नदी असराल बहै उर, बूड़त हौं वामैं निरंधार । भूधर प्रभु पिय खेवटिया विन, समरथ कौन उतारनहार ।। देख्यो० ॥३॥ १६. राग पंचम। जिनराज ना विसारो, मति जन्म वादि हारो.॥ टेक ॥ नर भी आसान नाहीं, देखो सोच समझ वारो ॥ जिनराज० ॥ १॥ सुत मात तात तरेनी, इनसौं ममत निवारो। सबही सगे गरजके दुखसीर नहिं निहारो॥ जिनराज० ॥२॥ जे खाय लाभ सब मिलि, दुर्गतमैं तुम सिंधारो । नटका कुटंव जैसा, यह खेल यों विचारो ।। जिनराज० ॥ ३ ॥ नाहक पराये काजै, आपा नरकमैं पारो । भूधर न भूल जगमें, जाहिर दगा है यारो। जिनराज०॥४॥ १७. राग नट। जिनराज चरन मन मति विसरै ।। टेक ॥को नानै किहिं बार कालकी, धार अचानक आनि १ अथाह । २ निराधार । ३ वृथा खोओ। ४ सहज । ५ स्त्री। ३ वृथा । ७ समय । ८ धाड़।

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