Book Title: Jainpad Sangraha 03
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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तृतीयभाग । टहल कहै बड़भागी । तहां गुमान कियो मति'हीनी, सुनि उर दौंसी' लागी ॥ देखो ० ॥ १ ॥ जाकी चरण धूलिको तरसैं, इन्द्रादिक अनु रागी । ता प्रभुको तन -वैसन न पीड़े, हा ! हा! परम अभागी || देखो ० ॥ २ ॥ कोटि जनम अघभंजन जाके, नामतनी वलि जइये । श्रीहैंरिवंशतिलक तिस सेवा, भाग्य विना क्यों पइये ॥ देखो० ॥ ३ ॥ धनि वह देश धन्य वह धरनी, जगमें तीरथ सोई । भूधरके प्रभु नेमि नवल निज, चरन धरैं जहाँ दोई || देखो० ॥ ४ ॥
२८. राग घमाल सारंग |
अरज करै राजुल नारी, वनवासी पिया तुम क्यों छोरी ? ॥ टेक ॥ प्रभु तो परम दयाल सबनिपै, सबहीके हितकारी । मोपै कठिन भये क्यों साजन !, कहिये चूक हमारी ॥ अरज० ॥ १ ॥ अव ही भोग-जोग हो वालम, यह बुधि कौन विचारी । आगें ऋषभदेवजी व्याही, कच्छ
१ चाकरी, वस्त्र निचोडनेके लिए । २ दावाग्निसी । ३ धोती । -४ निचोर्डे । ५ श्रीनेमिनाथ ।

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