Book Title: Jainpad Sangraha 03
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 38
________________ ३० जैन पदसंग्रहअजित०॥१॥वादि अनादि गयो भव भ्रमतें, भयो बहुत कुलकान जी । भाग सँजोग मिले अब दीजे, मनवांछित वरदान जी ॥ अजित० ॥ २ ॥ ना हम मांगें हाथी घोड़ा, ना कछु संपति आन जी । भूधरके उर बसो जगतगुरु, जबलौं पद निरवानजी ॥ अजित० ॥३॥ • ४२. राग धनासरी। . सो मत सांचो है मन मेरे ॥ टेक ॥ जो अनादि सर्वज्ञप्ररूपित, रागादिक विन जे रे ॥ सो मत०॥१॥ पुरुष प्रमान प्रमान वचन तिस, कलपित जान अने रे । राग-दोष-दूषित तिन चायक, सांचे हैं हित तेरे ॥ सो मत. ॥२॥ देव अदोष धर्म हिंसा विन, लोभ विना गुरु वे रे। आदि अन्त अविरोधी आगम, चार रतन जहँ ये रे ॥ सो मत० ॥३॥ जगत भयो पाखण्ड.परख विन, खाइ खता बहुते रे। भूधर करि निज सुबुधि कसौटी, धर्म कनक कसि ले रे ॥ सो मत० ॥ ४ ॥ १ वृथा। २ अन्यमव । ३ वचन ।

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