Book Title: Jainpad Sangraha 03
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 43
________________ तृतीयभाग | २५ • मिट जै है । तव न करों तेरी फिर पूजा, यह अपराध खमों प्रभु दूजा || आदि० ॥ ३ ॥ भूधर दोष किया वैकसावै, अरु आगेको लारे लावै । देखो सेवककी ढिठेवाई, गरुवे साहिबसों वनियाई || आदि० ॥ ४ ॥ ५०. राग ख्याल काफी कानडी । तुम सुनियो साधो !, मनुवा मेरा ज्ञानी । सत गुरु भेटा सँसा मैटा, यह नीकै कार जानी ॥ टेक ॥ चेतनरूप अनूप हमारा, और उपाधि विरानी ॥ तुम सुनियो० || १ || पुदगल भांडा आतम खांडा, यह हिरदै ठहरानी । छीजौ भीजौ कृत्रिम काया, मैं निरभय निरवानी || तुम सुनियो ० ॥ २ ॥ मैं ही देखों मैं ही जानों, मेरी होय निशानी । शवद फरस रस गंध न धारौं, ये वातैं विज्ञानी ॥ तुम सुनियो ० ॥ ३ ॥ जो हम चीन्हां सो थिर कीन्हां, हुए सुदृढ़ सरधानी । भूधर अव कैसें उतरेगा, खड़ग चढ़ा जो पानी || तुम सुनियो० ॥ ४ ॥ १ माफ कराता है । २ ढीठता । ३ बनियांपन । ४ संदेह |

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