Book Title: Jainpad Sangraha 03
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 29
________________ तृतीयभाग। 'धीर धरौं री । पर घर हाँडै निज घर छांडे, कैसी विपति भरों री ॥ हूं तो० ॥२॥ कहत कहावतमें सब यों ही, वे नायक हम नारी । पै सुपनै न कभी मुँह बोले, हमसी कौन दुखारी॥ हूं तो० ॥३॥ जइयो नाश कुमति कुलटाको, विरमायो पति प्यारो । हमसौं विरचि रच्यो रँग वाके, असमझ (?) नाहिं हमारो ॥ हूं तो० ॥४॥ सुंदर सुघर कुलीन नारि मैं, क्यों प्रभु मोहि न लोरें । सत हू देखि दया न धरै चित, चेरीसों हित जोरें ॥ हूं तो० ॥ ५॥ अपने गुनकी आप वड़ाई, कहत न शोभा लहिये.। ऐरी ! वीर चतुर चेतनकी, चतुराई लखि कहिये ॥ हूं तो० ॥ ६॥ करिहौं आजि अरज जिनजीसों, प्रीतमको समझावें । भरता भीख दई गुन मानौं, जो बालम घर आवें ॥ हूं तो० ॥ ७॥ सुमति वधू यौं दीन दुहागनि, दिन दिन झुरत निरासा । भूधर पीउ प्रसन्न भये विन, वसै न तिय घरवासा ॥ हूं तो० ॥८॥ १ भटके । २ प्रेम करें।

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