Book Title: Jainpad Sangraha 03
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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तृतीयभाग। परै ॥ जिनराज०॥१॥ देखत दुख भजि जाहिं दशौं दिश, पूजत पातकपुंज गिरै । इस संसार क्षारसागरसौं, और न कोई पार करै ॥ जिनराज.॥२॥ इक चित ध्यावत वांछित पावत, आवत मंगल विघन टरै । मोहनि धूलि परी माथें चिर, सिर नावत ततकाल झरै ॥ जिनराज०॥३॥ तवलौं भजन सँवार सयान, जवलौं कफ नहिं कंठ अरै । अगनि प्रवेश भयो घर भूधर, खोदत कूप न काज सरै। जिनराज ॥४॥
___ १८. राग सारंग। भवि देखि छवी भगवानकी ॥ टेक ॥ सुंदर सहज सोम आनंदमय, दाता परम कल्यानकी ।। भवि०॥१॥ नासादृष्टि मुदित मुखवारिज, सीमा सव उपमानकी । अंगअडोल अचल आसन दिड़, वही दशा निज ध्यानकी ॥२॥ इस जोगासन जोगरीतिसौ. सिद्ध भई शिवथानकी । ऐसें प्रगट दिखावै मारग, मुद्रा धात पखानकी ।
१ प्रसन्न । २ क्मल ।

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